Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जोखिम

 

खेत की फसले खलिहान आकर किसानों का वैभव बढ़ा रही थी,मड़ाई का काम भी तेजी से चल रहा था,खलिहाल कारखाने का रूप् घारण कर चुके थे। खाली खेत पीताम्बर स्वर्णिम काया धारण किये सूरज देवता को जैसे उकसा रहे थे। सूरज देवता भी भरपूर तपन का ताण्डव प्रत्यारोपित करने में तनिक हिचकिचा नही रहे थे।खेत की छाती से सूरज की तपन का घर्शण होने पर खेत से जैसे अग्नि प्रज्वलित हो जा रहा थी परन्तु श्रमिक वर्ग हौषले के अष्त्र-षस्त्र तपन को नजरअन्दाज कर कर्मपूजा में लगा हुआ था। इसी बीच अचानक पष्चिम की ओर से अंवारा बादल उठने लगे थे। कुछ ही देर में ये अंवारा बादल तपते हुए सूरज को जैसे ढ़क लिये और ओले-तूफान के साथ कहर बनकर बरस पड़े थे। प्रभुदेव अंवारा बादलों के कहर को जैसे अपनी छाती पर हुआ प्रहार महसूस कर रहे थे।इसी बीच धनादेव प्रभुदेव के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला किस आत्मप्रसव से गुजर रहे हो मित्रवर।
प्रभुदेव-अंवारा बादलों के कहर ने किसानों के धन-मन और तन की हाड़फोड मेहनत से उपजी फसल को ले डूबा क्या यह आत्मप्रसव से कम है ?
धनादेव-वह तो है। इसीलिये तो कहते है किसान सबसे बड़ा जुआड़ी होता है।यही जुआड़ीपना किसान को भगवान समतुल्य खड़ा कर देता है। मित्रवर तुम जैसे आत्म प्रसव में जीने वालों को समय के पुत्र के रूप में काल के गाल पर जड़ देता है।
प्रभुदेव-मित्रवर कह तो ठीक रहे हो परन्तु प्रकाषक आत्मप्रसव से उपजी कृति के लिये वैसे ही कहर साबित हो रहे है जैसे खेत में खड़ी फसल या खलिहान में रखी फसल के लिये असमय तूफान के साथ ओलावृश्टि।
धनादेव-मित्रवर मैंने तो सुना है कि कालजयी लेखक को प्रकाषकों ने नही बख्षा उन्हें कर्जा लेकर पुस्तक छापना पड़ा था। सच पुस्तक का प्रकाषन जोखिम भरा काम है। बेचारा लेखक जिसे पागल की संज्ञा दी जाती है।साल दर साल आत्मप्रसव में जीता है तब जाकर कृति आकार पाती है। इसके बाद उसे प्रकाषक नही मिलता है। सरस्वती और लक्ष्मी की बैर जग जाहिर है,बेचारे लेखक के खिस्से में तो छेद ही छेद होते है।स्वयं के बलबूते पुस्तक छापने का जोखिम कैसे उठाये ? हिम्मत कर उठा भी लिया तो पुस्तकों का क्या करें,उसे वितरक मिलने से रहे। पहले प्रकाषक नही मिले पुस्तक छपने के बाद विक्रेता नही मिलते। उपहार में अथवा निःषुल्क पुस्तकें देने पर कोई पढ़ता है या नहीं यह भी सुनिष्चित नहीं क्योंकि पुस्तक को लेकर लेखक के कान दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते है। नतीजा ये होता है कि आत्म प्रसव पीड़ा से उपजी कृतियां आलमारी में बन्द हो जाती है।
प्रभुदेव-सच पुस्तक लिखना आसान काम है पर पुस्तक छपवाना बहुत मुष्किल काम है।
धनादेव-मित्र तुम्हारी दो पुस्तके तो छप चुकी है।
प्रभुदेव-समाजेसवी संस्थाओं के सहयोग से।
धनादेव-तुम्हारी पुस्तकों को छापने के लिये समाजेसवी संस्थाओं ने सहयोग दिया पर प्रकाषक नही मिले। संस्थाओं को तुम्हारी पुस्तकें साहित्य एंव समाज के उपयोगी लगी होगी तभी तो सहयोग किया होगा ।
प्रभुदेव-यकीनन। संस्थाओं के प्रतिनिधि मण्डलों ने जांचा,परखा तौला तब जाकर कर सहयोग दिया,इसके बाद प्रकाषक छापने को तैयार तो हो रहे थे पर मोलभाव ऐसे कर रहे थे जैसे बकरकसाई। समाजेसवी संस्था से मिली आर्थिक सहयोग राषि से तीन गुना और अधिक राषि मांग रहे थे।
धनादेव-क्यों................?
प्रभुदेव-पुस्तक छापने के लिये और बेचकर अपनी तिजोरी भरने के लिये।
धनादेव-रायल्टी नहीं दे रहे थे क्या ?
प्रभुदेव-उल्टे मुझसे ही मांग रहे थे रायल्टी तो बहुत दूर की बात थी।
धनादेव-पुस्तक प्रकाषन के क्षेत्र में भी भ्रश्ट्राचार जड़ जमा चुका है।
प्रभुदेव-क्या कहोगे ? एक लेखक पुस्तक लिखने में अपने जीवन का बसन्त गंवा देता है।आंख पर भारी भरकम ऐनक लग जाता है,कई सारी बीमारियों का षिकार हो जाता है। प्रकाषक ऐसा सलूक करते है। लेखक को रायल्टी देने की बजाय छापने के पैसे लेखक से मांग रहे है। लेखक पुस्तक लिख रहा है और उसी की छाती पर छपाई के खर्चे का भार डालकर प्रकाषक मौज कर रहा है। पुस्तक विक्रय से हुई आमदनी प्रकाषक की तिजोरी में चला जाता है,लेखक की जेब में तो वैसे ही कई छेद थे अब और अधिक हो जाते है।
धनादेव-मित्र मेरी समझ से प्रकाष ही ऐसा प्राणी है जो पाठकों से पुस्तकों से दूर कर रहा है। तुम पूछोगे कैसे,उससे पहले में बता देता हंू। देखो प्रकाषक लेखकों से कागज सहयोग के नाम पर दस से बीस हजार की मांग करता है। बात दस से पन्द्रह हजार सहयोग राषि कुछ लेखकीय प्रतियां और दस प्रतिषत रायल्टी में पट जाता है।रायल्टी तो सिर्फ भ्रम में रखने का तरीका है। लेखकीय प्रतियां जरूर मिल जाता है। इतनी राषि में प्रकाषक महोदय किताब छाप लेते है। कुछ किताबों सरकारी संस्थानों को बेच देते है। इस धंधे में प्रकाषक को ही मुनाफा होना है। किताबें इतनी महंगी होती है कि आम पाठक खरीद भी नहीं पाता है। ये किताबे दस प्रतिषत की छूट पर सरकारी संस्थानों में चली जाती है। इससे न तो पाठक को फायदा होता है ना साहित्य और ना साहित्यकार को, बस प्रकाषक अपने फायदे के लिये ये सब करता है। यदि किताबों की कीमते कम होती और इन पुस्तकों का प्रचार प्रसार होता तो पाठकों का रूझान पुस्तकों से कम नही होता। बताओं सौ पेज की किताब तीने सौ रूपये में पाठक खरीद सकेगा। मानता हूं महंगाई का जमाना हैं,भ्रश्ट्राचार भी है परन्तु इतनी कीमत बढ़ाना तो सीधे सीधे आम पाठकों को पुस्तकों से दूर करना है। यही किताबें जोड़तोड कर सरकारी संस्थानों तक पहुंच कर कैद हो जाती है।
प्रभुदेव-मित्र तुम्हारी बात में सच्चाई है।हमारी सरकारें भी साहित्य और साहित्यकार को कोई तवज्जों नही दे रही है।
धनादेव-सरकार को चाहिये था कि साहित्य और साहित्यकारों के उत्थान के लिये कल्याणकारी योजनायें लाये।देष के मुखिया राश्ट्रीय पर्व पर अपने उदबोधनों में सद्साहित्य को भी षामिल करें क्यों साहित्या समाज का दर्पण है।यही दर्पण समाज की जड़ों का पोशित करता है
प्रभुदेव-सच साहित्य ही तो ऐसा माध्यम हैं जों रीति-रिवाज,संस्कार,नैतिक दायित्व,मान-सम्मान परिवार और देष के महत्व,सामजिक सरोकार,भाशा ज्ञान-विज्ञान ये सब ज्ञान तो पुस्तकों से ही होता है पर इस ओर से सरकार और आधुनिक समाज का रवैया उदासीन हो गया है।
धनादेव-सच कहा गया है जीवन में बेहतरीन जो कुछ होता है उसका रास्ता पुस्तकों से होकर ही जाता है। दुर्भाग्यवष आधुनिक युग में साहित्य और साहित्यकार साजिष के षिकार है। क्या जमाना है जीवन के मधुमास का सुख लूटा कर कायनात के लिये सपने देखने वाले साहित्यकार को प्रसवपीड़ी से उपजी रचनाओं को पुस्तक के रूप में लाने के लिये जोखिम उठाना पड़ता है।बुरे दिनों के लिये संचित तनिक पूजीं अर्थात बुढ़ौती की लाठी प्रकाषकों की भेंट चढ़ जाती है।
प्रभुदेव-देखो धनादेव पुस्तक प्रकाषन की जोखिमों को देखकर मैंन तौबा कर लिया था ऐसा नही कि सृजन से नाता तोड़ लिया। सृजन कार्य जारी रहा और रचनायें अन्र्तजाल पर ब्लाग पर प्रकाषित करता रहा। हाँ दो किताबे जरूर दो संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से छपी पर इन दोनांे किताबों में मुझे बीस हजार से उपर लगाना पड़ा था परन्तु आवक कुछ नही हुई । खुषी इस बात की रही कि कुछ साहित्य प्रेमियों को निःषुल्क पुस्तकें उपलब्ध कराता रहा ।
धनादेव-पुस्तक अच्छे हाथ में पहुंचाना भी बड़ी बात है।
प्रभुदेव-पुस्तक तो इसी उम्मीद के साथ देता रहा हूं कि पुस्तक लेने वाला पढ़ेगा और प्रतिक्र्रिया देगा।कुछ लोग देते भी है।इससे हौषला बढ़ता है खिने की उर्जा मिलती है और जोखिम उठाने की हिम्मत भी होती है।
धनादेव-देखो मित्र पुस्तक पढ़ने और अन्र्तजाल पर पढ़ने में अन्तर है।अन्र्तजाल पर पढ़ना कोई सस्ता काम तो है नहीं।एक बार पुस्तक खरीद लिये पढ़ों और दूसरे को पढ़ने के लिये दे दो।इन्टरनेट का भी बिल आता है ।
प्रभुदेव-इन्टरनेट पर पढ़ने वालों की संख्या अधिक है।नवोदित रचनाकारो को तथाकथति बड़े और बुजुर्ग ठीहेदार साहित्यकार जगह तो देते नहीं।मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।चाटुकारिता करने की बजाय इन्टरनेट से जुड़ गया,देखो देष-दुनिया तक रचनायें पहुंच रही है।यहां कोई जाखिम भी नही है।मुझे तो पाठक चाहिये वो मिल रहे है। पैसा कामना अपना उदेष्य था नही,लेखन कर्म के माध्यम से साहित्य और समाज सेवा करना का उदेष्य पूरा हो रहा है।
धनादेव-मित्र जोखिम उठाओ।
प्रभुदेव-देखो मित्र मामूली सा मुलाजिम हूं,बड़ी रस्साकस्सी के साथ घर चल पा रहा है।जोखिम उठाने में खतरा है। प्रकाषक ऐसा प्राणी है उससे बच पाना कठिन है।
धनादेव-अनुबन्ध करवा लो,लेखकीय प्रति और कुछ रायल्टी तो मिल ही जायेगी।
प्रभुदेव-कोषिष कर चुका हूं।
धनादेव-क्या हुआ ?
प्रभुदेव-जिसका डर था वही।
धनादेवा-लेखकीय प्रति के साथ रायल्टी कम मिली क्या ?
प्रभुदेव-रायल्टी की बात कर रहे हो,उल्टे प्रकाषक कागज के पैसे के नाम पर पन्द्रह हजार मांग रहा है।
धनादेवा-मतलब दुनिया को आंख देने वाला ठगी का षिकार।
प्रभुदेव-सच्चाई तो यही है।
धनादेवा-यार षहर में रोज तो नई किताबों के विमोचन हो रहेे है उन लेखकों की किताबे कैसे छप रही होगी।
प्रभुदेव-दो तरीके है।
धनादेवा-कौन-कौन ?
प्रभुदेव-कुछ लेखक आर्थिक रूप से खूब सम्पन्न होते है,जिन्हे पैसे की परवाह नही होती। रायल्टी मिल गयी तो ठीक नही मिली तो भी ठीक। वे किताबें सुखियां पाने के लिये लिखते है और पैसा देकर किताब छपवाते रहते है।बढ़-चढ़कर विमोचन करवाते है और खर्च भी करते है।बस उनको नाम से मतलब होता है। दूसरे वे लेखक जो प्रसिद्धी पा चुके होते है येनकेन प्रकारेण। ऐसे लेखकों कि पुस्तकें प्रकाषक छापने में स्वयं का गौरव समझते है क्योकि सरकारी खैरात दिलानें में पहुंच वाले लोग मददगार साबित होते है। रही बात आम लेखक की जो पेट में भूख दिल पर चिन्ता का बोझ लेकर समाज और देष के हित में जीता और कलम घिसता है,ऐसे फटेहाल लेखक को कौन पूछेगा। बेचारे कि पाण्डलिपियां रखी-रखी चूंहे कुतर जाते है।ऐसे लेखक की किताब छप नही पाती है अगर छप गयी तो झण्डा गाड़ देती है। मित्र पैसा का काम तो पैसा से ही होता है,पैसे की कमी की वजह से उत्तम लेखक की उत्तम कृति समाज के सामने नही आ पाती।
धनादेव-खैर धांधलेबाजी तो नीचे से उपर तक है।रंग बदलते युग में कई और साधन आ गये है जिससे पुस्तकों का प्रकाषन आसान हो गया है।
प्रभुदेव-ई बुक की बात कर रहे हो।यहां भी खर्चा है,नवोदित लेखक तो इसका फायदा उठा सकते है पर पुरानी पीढ़ी के लेखक क्या करेंगे।छपी पुस्तक का जो महत्व है। ई बुक का नही हो सकता।रचना सामग्री टाइप करवाना कम खर्चीला तो है नही पन्द्रह से बीस रूपया पेज लग रहा है। सौ पेज की पुस्तक पर टाइप का खर्च ही दो हजार आ गया।बेचारा आम लेखक परिवार पाले या किताब छपवाये इसी कष्मकष में चप्पले घिस जा रही है।
धनादेव-मित्र ई बुक रचना को कालजयी बना देती है।
प्रभुदेव-मानता हूं पर पैसा भी तो चाहिये।देष और समाज के लिये लिखने वाले आम लेखक के पास इताना रूपया कहा ?
धनादेव-प्रकाषकों के भी दिन लदेगे । सुना है कुछ ई प्रकाषक आम लेखकों की पहचान सुदृढ़ करने के उदेष्य से सामने आ रहे है।वे पुस्तके निः षुल्क छापेगे।ई पुस्तकों के लेखको रायलटी भी देगे।
प्रभुदेव-यहां भी वही वाले लोग लाभ उठा पायेगे जो सम्पन्न होगे या तकनीकी जानकार।
धनादेव-तुम्हारी किताब की बात आगे बढ़ी की नही ।
प्रभुदेव-ई बुक की तरफ मेरा भी झुकाव तो हो गया है। छपी पुस्तक का कोई मुकाबला तो नही पर प्रकाषक लूटने पर लग जाये तो किताबें कैसे छपेगी। हारकर ई पुस्तकों की ओर जाना होगा।
धनादेव-किताबों की कीमते देखकर हिम्मत छूट जाती है। किताबें तो प्रकाषकों के लिये पैसा बनाने की मयषीन हो गयी है।खासकर हिन्दी पाठकों किताबे खरीदने में रूचि नही रहती है,इसके बाद भी किताबों की कीमतें आकाष छूयेगी तो ये पाठक कैसे किताबें खरीदेगे जो खरीदना भी चाहंेगे वे मुुंह मोड़ लेगे। सच किताबों को पाठकों से दूर करने के जिम्मेदार प्रकाषक हैै। अस्सी पेज की किताबे दो सौ बीस रूपये कीमत। कैसे पाठक हिम्मत करेगा।प्रकाषकी भी सम्भवतः यही चाहते है क्योंकि वे सरकारी पुस्तकालयों के सुपुर्द कुछ किताबे कर देते है,लेखक से कागज के खर्च के नाम पर पहले ही मोटी राकम ऐंठ लिये होते है।प्रकाषक का तो फायदा ही है। मारा तो लेखक गया, छः महीना किताब लिखने में लगाया,उपर से छपाई में सहयोग के नाम पर प्रकाष चमड़ी उधेड़ लिया और किताब पाठक तक भी नही पहुंची । बेचारे लेखक का धन और श्रम सब व्यर्थ गया। खजाना भरा तो प्रकाषक का।
प्रभुदेव-यही हो रहा है मेरे साथ भी।
धनादेव-क्या.............?
प्रभुदेव--हां मित्र।अपजष प्रकाषक को मेरे पुस्तक की पाण्डुलिपि बहुत पसन्द आई। मैं पत्र लिख-लिखकर अनुबन्ध की बात करता रहा वह टालता रहा। उसने पुस्तक का प्रुफ भेज दिया,बिना किसी अनुबंध किये। इसके बाद उसके फोन आने लगे साहब बहुत महंगई है। कागज के खर्च में आपको मदद करना होगा।मै ना.........ना....करता रहा।
धनादेव-रायल्टी की बात भी तुमने नही किया।
प्रभुदेव-वह तो बस फोन किये जा रहा था वह भी पैसा के लिये।
धनादेव-अपजष प्रकाषक ठग है क्या ....?
प्रभुदेव-मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। उसने बोला दस प्रतिषत रालल्टी और 35 किताबें दूंगा पर आपकोे पन्द्रह हजार पुस्तक छपाई में लगने वाले कागज का खर्च वहन करना होगा। मेरी मती मारी गयी थी घरवाली की इलाज के लिये पैसे रखे थे किताब छपवाने की खुषी में बावला हो गया था दे दिया इसके बाद तो वह गिरगिट की तरह रंग बदल रहा है ।
धनादेव-क्यों..?
प्रभुदेव-रायल्टी से मुकर रहा है।
धनादेव-पैसे और पाण्डुलिपि वापस मांग लो ।
प्रभुदेव-नही दे रहा है। कह रहा रायल्टी की कोई बात नही हुई थी।रायल्टी दूंगा। मेरी किताब और पैसे दोनों ठग अपजष प्रकाषक के पास फंस गये है।कह रहा है पीडीएफ के पांच हजार काटकर वापस करूंगा।बताओं ऐसे प्रकाषक सस्ती पुस्तकें कैसे छापेगे जो साहित्य के दुष्मन बन बैठे है और साहित्यकार का गला काटने पर जुटे हुए है।
धनादेव-सच साहित्यकार के लिये पुस्तक छपवाना जोखिम भरा काम हो गया है। तुम्हारे श्रम को देखकर मैं नतमस्तक तो था पर तुम्हारा दर्द जानकार पलकें गीली हो आयी।सदियों से साहित्यकार समाज के प्रति दायित्व निभा रहा था अब वक्त आ गया है समाज साहित्यकार के प्रति दायित्व निभायें तभी साहित्य और साहित्यकार जीवित रह सकते है।
प्रभुदेव-काष समाज अपना दायित्व निभाता तो साहित्यकार को दर्द भरे जीवन के साथ जोखिम में नही जीना पड़ता।
धनादेव-सच कुछ स्वार्थी प्रकाषको ने साहित्यकारों के लिये पुस्तक प्रकाषन जोखिम भरा बना दिया है। समाज के सजग प्रहरियों को साहित्य को समाज का दर्पण बनाये रखने के लिये अपने दायित्व पर खरा उतरना होगा तभी सभ्यता,संस्कृति और परम्परायें एक पीढी से दूसरी पीढी सुरक्षित हस्तान्तरित होती रहेगी। साहित्य दर्पण बना रहेगा। समाज को चाहिये वह अपने दायित्व को पहचान ले वरना भारतीय सभ्य समाज सभ्यता और संस्कृति से दूर चला जायेगा जहां साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है।

 

 


डां.नन्दलाल भारती

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