बीटिया बड़ी होने लगी है
और
मेरा घर लगने लगा है ,
छोटा।
बीटिया अंगुली पकड़ते-पकड़ते ,
उड़ान भरने लगी है।
पीछे देखने पर लगता है ,
बौना हो गया है वक्त ,
नन्ही अंगुलियों का स्पर्श ,
कल की बात लगती है।
बीटिया की सोच का कैनवास
बड़ा हो गया है ,
बढ़ते कैनवास को देखकर ,
बढ़ने लगा है ,
मेरा आत्मबल।
बीटिया जमा करने लगी है ,
रंग ,
दुनिया सजाने के लिये।
खुद के खींचे खाके में ,
भर देती है रंग ,
और
जीवंत कर देती है कल्पना
रह जाता हूँ मैं भौचक्का।
सोचता हूँ क्या …………?
वही गिर-गिर कर चलती
तुतलाती ,दीवार पर लकीर उकेरती
बीटिया है ,
जिसने थाम लिया है कूंची ,
और
भरने लगी है रंग,
दुनिया के कैनवास पर
.….डॉ नन्द लाल भारती
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