ग़मों के दौर है ,
मेरा क्या कसूर ,
हालात के सताए ,
हो गए मज़बूर।
छांव की आस ,
धुप में बहुत तपे हजूर ,
बदकिस्मती हमारी क्या। …?
आदमी की साजिश ,
कांटे मिले भरपूर .
विषबाण का सफ़र ,
मान बैठा दस्तूर।
आंसूओ का पलकों से खेलना ,
तकदीर बन गया है हजूर।
टूटे हुए ख्वाब ,
उम्मीद पर ज़िंदा हूँ
कोई कहे मज़बूर ,
कोई कहे बेक़सूर
हाय रे अपनी जहां
दमन,भेदभाव,उत्पीड़न
कैसा दस्तूर ....?
श्रमवीर -कर्मवीर मैं पर ,
अपनी जहां के दिए
गमो के दौर है,
मेरा क्या कसूर ..........
डॉ नन्द लाल भारती
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