ना जाने लोग क्यों ,
दबे हुए को दबाना चाहते हैं ,
नकाब तो ओढ़ते हैं ,
चोट खतरनाक करते हैं
वहॉ लोग,
त्याग की बात करते हैं।
गाँठ रखने वालो का
कैसा भरोसा ……… ?
ये तो मंतव्य को तरासते हैं
गरीब का शोषण शौक ,
हक पर डाका
अधिकार समझते हैं।
बंदिशों की तपन नहीं तो ,
और क्या कहे ....?
शोषित आज भी सिसक रहे ,
हर कोइ उम्मीद पर ,
खरा चाहता है ,
कर दरकिनार सिसकिया ,
दोहन चाहता है।
दबे हुए को दबाने का,
आतंक जारी है ,
यही तो बदनसीबी है ,
आंसू में बह रही योग्यता सारी ,
क्या दबे को दबाना खुदाई है ,
तूफ़ान का डर ,
आदमियत से जुदाई है ,
अगर श्रेष्ठ बनाने की ,
लालसा है दिल में
दबे कुचलों का करे उध्दार ,
सच्चे मन से ,
मिल जायेगा श्रेष्ठता का गंतव्य ,
मन में जब बसेगा गंगा सा मंतव्य
… डॉ नन्द लाल भारती
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