Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मरते घर

 

गांव विरान हो रहे हैं
धरती बंजर सी लगने लगी है
वो घर जहां पनपती थी यादें
पीढ़ियों पुराने पुरखों की
संवरते थे खून के रिश्ते
गूंजा करती थी विरासतें
गांव के घरों से उठा करती थी
लोरी किस्से सोहर की
मधुर स्वर लहरियां
तीज त्यौहार के दिन
गांव के घरों से तितलियों सी गीत गाती
तालाब पोखर की ओर बढ़ती थी
गांव की आन मान शान लड़कियां
पवित्र स्नान के लिए
वही पोखर तालाब अपवित्र हो चुके हैं
गांव के घर रोज रोज मर रहे है
गाँव विस्थापित हो चुका है
आकी बाकी भी हो रहा हैब
शहरों की भीड़ में
गांव में बचे है तो बार बार
चश्मे साफ करते हुए लोग
इंतजार में ताला जड़े मरते हुए घर
जातिवाद चट कर रहा सर्वस्व
सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
हो चुके है बेखबर
गांवों का देश खतरे में है
सरकारें ब्यस्त है दिन साल का
जश्न मनाने में और कागजी घोड़े दौड़ाने में
काश सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
उबर जाते अपने गुमान से
बच जाते नित मरते घर
विकास की बयार जुड़ जाती
विरान होते गांव से।।।।

 

 


डॉ नन्दलाल भारती

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ