Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मुखौटा

 

बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ,
बेगाने जहा में ,
जीते रहे मरते-मरते
जहर पीए भेद भरी दुनिया में ,
गम से दबे डूबे रहे ,
आतंक अपनो का ,
अमानवीय दरारो के धूप,
छलते रहे ,
ना मिली छांव ,
रह गए दम्भ में भटकते-भटकते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते ………………
उम्मीद कीजमीन पर ,
विश्वास की बनी है परते ,
विरोध की बयार में भी ,
दिन गुजरते रहे ,
स्याह रात से बेखबर ,
उजास ढूढते रहे ,
घाव के बोझ ,
फूंक-फूंक कदम रखते रहे ,
बिछुड़ गए कई ,
लकीर पर फ़क़ीर रहते -रहते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
दिल में जवान मौसमी बहारे ,
गुजर रही यकीन पर राते
ना जाने कौन से नक्षत्र
वक्त ने फैलाई थी बाहें ,
कोरा मन था जो बेबस है ,
अब भरने को आहें
आदमी की भीड़ में ,
थक रहे अपना ढूढते ढूढते
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............
नहीं अच्छा बंटवारा ,
जाति -धर्म के नाम पर
जुल्म रोकिये
खुदा के बन्दे सच्चे ,
छोटे हो या बड़े हर बन्दे को ,
गले लगाईये ,
समता शांति के नामे ,
मुखौटे नोंच दीजिये ,
करवा गुजर गया ,
ना मिला सकून ,
लकीर पीटते -पीटते ,
बेक़सूर चोट खाये है बहुत,
राह चलते-चलते .............

 

 


डॉ नन्द लाल भारती

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