मजदूर बाप सुखीराम,नाम भर ही सुखीराम था।उसके जीवन में पग-पग पर कांटे और पल-पल दर्द था। ऐसे दर्द भरे जीवन में और मुर्दाखोरों यानि छुआछूत के पोशकों जाति के नाम पर कुत्ते बिल्ली जैसा दुव्र्यवहार करने वाले,पैतृक सम्पति हथियाने,आदमी होने का सुख छिन लेने वाले षोशक समाज के चंगुल में फंसा बंधुवा मजदूर सुखीराम सत्याग्रह कर बैठा था बेटे सुदर्षन को एम.ए. तक पढ़ाने का।उसका सत्याग्रह पूरा भी हुआ था ।सुखीराम के सत्याग्रह की बात स्वामीनरायन बस्ती के मजदूरों से बड़े गौरव से कहता।वह बस्ती के मजदूरों को उकसाता रहता था कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें ना कि दबंग जमींदारों के खेत खलिहानों में मजदूरी करने को। स्वामीनरायन बी.ए.पास सुदर्षन को बतौर नजींर पेष करता।वह कहता बाप ने तो बहुत सत्याग्रह किया जमीदार की हलवाही करते हुए और अपने सत्याग्रह में पास हो गया। सुदर्षन को मजदूर बनाने की जमींदार की लालसा पूरी नही हो सकी।देखो वह षहर चला गया,भगवान उसकी मदद करें उसे बाप की तरह सत्याग्रह ना करना पड़े।
सुदर्षन गांव से षहर की ओर कूंच तो कर गया पर उसे षहर में कोई ठिकाना ना था कई बरसों तक षहर में नौकरी की तलाष में बावला सा फिरता रहा पर वह मेहनत मजूदरी करने में तनिक नही हिचकिचाया। मेहनत मजदूरी कर झुगी का किराया और खुराकी चलाने लायक कमाने लगा था। इस सबसे जो बचता वह अपने बाप का मनिआर्डर कर देता। बाप का लगता की बेटा सरकारी अफसर की नौकरी मिल गया। वह मूंछ पर ताव देते हुए कहता अरे बस्ती वालों तुम भी अपने बच्चों को उंची पढ़ाई करो। बिना पढ़ाई के नसीब नही बदलेगी,देखो मेरे बेटवा को हर महीने मनिआर्डर कर रहा है भले ही सौ रूपये का । सुदर्षन बस्ता के लिये उदाहरण बन गया था परन्तु बेरोजगारी की समस्या से उबर नही पा रहा था।पांच वर्श की भागदौड़ और निराषा से दिल्ली में होकर भी उसे दिल्ली दूर लगने लगी।पल-पल बदलते दिल्ली के रंग में उसे दिल्ली सेे दूर जाना कैरिअर संवरने की तरकीब लगने लगा।वह इतना धनिखा तो था नही कि वह नौकरी खरीद सके। दिल्ली की मण्डी में झल्ली ढोकर मां बाप के सपनों को पूरा कर सके।दिल्ली में उसे अपना भविश्य मरता हुआ नजर आने लगा था।अन्ततः उसने दिल्ली को अलविदा कहने का मन बना लिया ।
एक दिन वह पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेषन से रेल में बैठ गया,दूसरे दिन वह झलकारीबाई की त्याग भूमि की ओर प्रस्थान कर गया। रेल से उतरते ही वह रेलवे स्टेषन के मेनगेट से बाहर निकला और अपना भश्यि तलाषने निकल पड़ा । अनजान षहर में कई दिनों की भागदौड़ के बाद उसकी सोई नसीब ने करवट बदला और उसे एक अर्धषासकीय असत्कारी कम्पनी में अस्थायी कलर्क की नौकरी मिल गयी।क्षेत्र प्रमुख रामपूजन साहब ने षुरूआती दौर में षिक्षक की भूमिका में नजर आये। तीन महीना तक निष्चिन्तता के साथ नौकरी किया। चैथे माह के प्रारम्भ में रामपूजन साहब का तबादला हो गया।उनकी जगह रजिन्दर गिद्धू आ गये।गिद्धू साहब तो उपर से बड़े भलमानुश थे।सुनने में आया कि रामपूजन साहब का तबादला गिद्धू साहब करवाकर खुद कार्यालय प्रमुख बन गये। गिद्धू साहब के कार्यभार संभालते ही सुदर्षन पर मुसीबतों के पहाड़ गिरने लगे। गिद्धू साहब कहने को तो अहिंसावादी थे पर षोशित गरीब को आंसू और उसके भविश्य का कत्ल करने में उन्हें तनिक हिचक नही होती थी। सुर्दषन छोटी जाति का है गिद्धू साहब को यह खबर डां.विजय प्रताप साहब से लग गयी पहले ही लग गयी थी। अब क्या गिद्धू साहब कार्यालय प्रमुख बनते ही सुदर्षन को बाहर का रास्ता दिखाना तय कर लिये।इस शणयन्त्र में डां.विजय प्रताप साहब विभाग में जनरल मैनेजर थे उनका पूरा सहयोग गिद्धू साहब को मिल रहा था।इन्ही के शणयन्त्र से गिद्धू साहब कार्यालय प्रमुख बने थे जिनके अधीनस्थ तीन संभाग के दर्जनो जिले थे। मामूली ग्रेजुयेट गिद्धू साहब डां.विजय प्रताप साहब के अंध भक्त थे उनके लिये षबाब,षराब और कबाब की व्यवस्था गिद्धू साहब करते थे।जिसकी वजह से पूरे विभाग में गिद्धू साहब का रूतबा सबसे उपर था। रूतबे का प्रभाव दिखाकर गिद्धू साहब ने जातीय अयोग्यता के कारण सुदर्षन को नौकरी से निकलवा दिये।वैसे भी इस सत्कारी विभाग में अछूतों को नौकरी नही दी जाती दी थी।रामपूजन साहब ने सुदर्षन की जाति नही उसकी तालिम और काबलियत देखकर नौकरी की सिफारिस किये थे पर गिद्धू साहब को सुदर्षन फूटी आंख नही भाता था। गिद्धू साहब जातीय शणयन्त्र के तहत् नौकरी से तो निकलवा दिया। सुदर्षन सतकारी विभाग में नौकरी करने के लिये सत्याग्रह पर उतर गया । इस विभाग में जैसे कुछ सौ साल मंदिरों और स्कूलों में अछूतो का प्रवेष वर्जित था उसी तर्ज पर सतकारी विभाग 19वी षताब्दी के आखिर में भी अघोशित रूप से में अछूतों को नौकरी देने की मनहाई थी।
सुदर्षन का संघर्श रंग लाया आखिकार असतकारी विभाग के जमींदार व्यवस्था ने उसे बहाल तो कर दिया। बहाली के बाद गिद्धू साहब का अत्याचार बढ़ गया। अत्याचार के खिलाफ विभाग में कोई सुनने को तैयार नही था। गिद्धू साहब ने सुदर्षन का कैरिअर बर्बाद करने में जुट गये।धीरे-धीरे सी.आर. करने में जुट गये।डां.विजय प्रताप साहब की सह तो गिद्धू साहब को भरपूर प्राप्त थी।विभाग में छोटे कर्मचारी से लेकर उच्च अधिकारी तक अधिकतर प्रथम एवं द्वितीय वर्ण के लोग थे,मध्य भारत के दफतर में तो सुदर्षन अनुसूचित जाति का इकलौता कर्मचारी था और सभी का कोपभाजन बनता था।वह चाहता तो उसे सरकारी नौकरी के लिये भी कोषिष कर सकता था। असतकारी विभाग में ज्वाइन करने के बाद कई परीक्षाएं दिया था,पास भी कर गया था पर अत्याचार के खिलाफ सत्याग्रह का फैसला कर लिया था। इसलिये अत्याचार के खिलाफ मौन षब्दबीज बोने लगा जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनायी देने लगी थी। डां.विजय प्रताप साहब ने गिद्धू साहब की समझाइस पर सुदर्षन का प्रमोषन न करने की कसम खा लिये।सुदर्षन बड़ी ईमानदारी से काम करता । काम को पूजा समझा संस्थाहित में आगे रहता। समय से आता देर से जाता पर वह जमींदार व्यवस्थापकों निगाह में अच्छा कर्मचारी नही था क्योंकि उसके पास उच्चजातीय योग्यता नही थी। कई तो ऐसे जातिवाद के पोशक उच्चधिकारी तो ऐसे थे जिनको अंग्रेजी क्या चार लाइन हिन्दी में भी लिखने पर पसीना छूट जाता था पर वे उच्च अधिकारी थे क्योंकि वे जातीय योग्यता की दृश्टि से योग्य थे। सुदर्षन उच्चषिक्षित होकर भी अयोग्य था।सुदर्षन अपने सत्याग्रह पर अडिग था अपने साथ हो रहे अत्याचार के खिलाफ मौन संशर्शरत् था । असतकारी विभाग में वह अपनी योग्यता के बल पर उच्च पद हासिल करना चाहता था।विभाग की कई आन्तरिक परीक्षाओं में बैठा भी परीक्षा तो पास कर जाता पर डां.विजय प्रताप साहब के इषारे पर इन्टरव्यू में फेल कर दिया जाता था। डां.विजय प्रताप साहब अब जनरल मैनेजर बन चुके थे पूरे विभाग की डोर उनके हाथ में थी। सुदर्षन की लगन को देखकर परेषान करने की नियति से गिद्धू साहब उसको काले पानी भेजने के नाम पर आंतकित करने का प्रयास करते रहते थ।सुदर्षन को तबादले से डर तो नही था क्योकि वह सत्याग्रह पर उतर चुका था । उसे ये भी पता चल चुका था कि डां.विजय प्रताप,देवन्द्र प्रताप,अवध प्रताप आर.पूजन,सुरेन्द एस.द्वारिका पी.रजिन्दर गिद्धू जैसे मुर्दाखोर उसका कैरिअर बर्बाद कर देगें। उसे तो बस एक ललक भी कि असतकारी कम्पनी में वह डटा रहे जहां षोशितों का प्रवेष वर्जित जैसा है। वह षोशित समाज के प्रतिनिधि कर्मचारी के रूप में विभाग काबिज रहते हुए अपनी ्रतिभा दिखाना चाहता था परन्तु मुर्दाखोर किस्म के रूढ़िवादी अफसर सारे रास्ते बन्द कर दिये थे । कहते है ना जहां चाह वही रहा। उसकी प्रतिभा उभर कर आने लगी जिससे वह मुर्दाखोर अफसरों की आखों में खटकने लगा था। विभाग में सुदर्षन को नौकरी करते तीस साल हो चुके थे पर तरक्की अभी भी कोसो दूर थी।डां विजय प्रताप रिटायर होकर भी रिटायर नही हो रहे थे,कम्पनी के उच्च पद से चिपके हुए थे।सुदर्षन का कैरिअर समाप्त तो हो ही चुका था पर उसे अपनी योग्यता,कर्म और श्रम पर विष्वास था । कम्पनी में डां.विजय प्रता की दबंगता को लेकर दबी जबान विरोध होने लगा था। एक दिन उनके एक विरोध ने सरेआम दफतर में जूता माार दिया। अब वे दफतर में मुंह दिखाने लायक नही बचे थे पर उनके मुर्दाखोर चम्मचें जिन्हे उनकी तरह ही कमजोर,षोशित वर्ग की तबाही को उतना ही मजा आता था जैसे जीवित पषु नोच-नोच कर खाने में लकड़बग्धे को।इसी आमनुशता का षिकार सुदर्षन भी था।नौकरी में उसके जीवन के तीस से अधिक मधुमास मुर्दाखोरो ने पतझड बना दिया गया था पर श्रमवीर सुदर्षन का विष्वास सदकर्म से नही उठा था ।कोई मुर्दाखोर उसे बिना वजह परेषान करता तो वह कहता सांच बात षहतुल्ला कहे सबके चित से उरतल रहे।मुर्दाखोर उसके मुंह निहारते रह जाते। सुदर्षन जब कभी अधिक परेषान हो जाता तो वह एकान्त में बैठकर गुनगुना उठता,
सच लगने लगा है,कुव्यवस्थाओं के बीच थकने लगा हूं,
वफा,कर्तव्य परायणता पर,षक की कैंची चलने लगी है,
ईमान पर भेद के पत्थर बरसने लगे है।
कर्म-पूजा खण्डित करने की साजिषें तेज होने लगी हैं,
पूराने घाव तराषे जाने लगे हैं
भेद भरी जहां में बर्बाद हो चुका है,कल आज
कल क्या होगा,क्या पता,
कहां सेम कौन तीर छाती में छेद कर दें,
चिन्तन की चिता पर बूढा होने लगा हूं,
उम्र के मधुमास पतझड़ बन गये हैं,
पतझड़ बनी जिन्दगी से,बसन्त की उम्मीद लगा बैठा हूं,
कर्मरत् मरते सपनों का बोझ उठाये फिर रहा हूं,
कलम का साथ बन जाये कोई मिषाल,अपनी भी
इसी इन्तजार में षूल भरी राहों पर, चलता रा रहा हूं..........
विभाग के मुर्दाखोर अफसर सुदर्षन के कैरिअर को बर्बाद तो कर चुके थे अब उसेे पागल करार करने के फिराक में जुटे रहते थे पर वह साजिषों से बेखबर कर्म-पूजा पर ध्यान केन्द्रित किये रहता था। सुदर्षन के बाप उसे अफसर देखने की इच्छा में मरण षैय्या पर पड़े चुके थे। पिता की बीमारी की खबर पाते ही सुदर्षन छुट्टी की अर्जी लगाकर गांव की ओर चल पड़ा। सुदर्षन को देखते ही सुखीराम उठ बैठे,जैसे उन्हें जिन्दगी का उपहार मिल गया हो।
स्वामीनरायन देखो बेटा को देखते ही उम्र मिल गयी।स्वामी नरायन बेटा अफसर बन गये ।
सुदर्षन बाप की आंखों में देखते हुए बोला बाबा जीत-जीत कर हारता रहा हूं पर जल्दी ही सपना पूरा होने की उम्मीद है।बेटा बड़ा दुख होता है,यह जानकर कि पढ़े लिखे उच्च वर्णिक अफसर पुराने जातीय भेदभाव की मुर्दाखोरी से नही उबर पाये है।
ये मुर्दाखोर किस्म के नर पिषाच लोग,
सज्जनों को आंसू देना,अपनी विरासत समझते है,
छल-प्रपंच में माहिर ये दोगले, आदमी के दिल को चीर कर रख देते है।
छीन को यतीम तक कर देते है, झूठी षान के दीवाने हिटलर
नरपिषाच की बाढ़ में बह जाते हैं, वक्त के ताल बेपर्दा होकर बदनाम हो जाते हैं।
सुदर्षन-बाबा जातीय व्यवस्था की तासिर षोशित वर्ग के लोगों का जीवन तबाह करने की है।
बाबा जाति व्यवस्था दुर्जनों की डरावनी नीति है,
सज्जनों को डंसती-सताती मित्ति है,इन खुदगर्जो की महफिलों में,
सच्चे नेक की कब्र खोदी जाती है।
भेद-चम्मचागीरी औजार ऐसा जिससे,सोने की डाल काटी जाती है
कर्म-श्रमवीर को रूसुवाई दी जाती है।
सुदर्षन-यही तो गम है अपनी जहां से।
कल नर के वेश में षैतान ने,श्रमवीर का जनाजा निकाला था,
आज माथे पर मुर्दाखोर के कु-करनी का रौब दहक रहा था,
वह जीता सा जुबान की तलवार भांज रहा था,
लूटी नसीब का मालिक अदना कर्म-पथ पर चला जा रहा था।
स्वामीनरायन-बेटा वैदिक काल में अखण्ड भारत के वक्रवर्ती सम्राट महाराजा की तनिक सी गलती से आज युगों बाद भी मूलनिवासियों जो लगभग ग्यारह सौ से पन्द्रह सौ उपजातियों में बंट चुके है,को दण्ड भुगतना पड़ रहा है।
सुदर्षन- कैसी गलती बाबा ........?
स्वामीनरायन-बेटा ऐ कैसी आजादी है आजाद होकर भी हम षोशित,हाषिये के लोग,कमेरी दुनिया के लोग झंख रहे है । हमारे समाज की वही हाल है-झंखै खरभान जेकर खाले खलिहान,महाराज बलि ने दान क्या कर किया कि वैदिक काल में आख्एड भारत के राजा सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देष के मूलनिवासी वर्तमान में षोशित रंक हो गये। महाराजा बलि गुरू षुक्राचार्य की बात मानकर छली वामन को अपना सर्वस्व दान नही करते तो आज षोशित वर्ग की दुर्दषा ना होती बेटा,
सच लगन लगा है,कुव्यवस्थाओं के बीच थकने लगा हूं,
वफा,कर्तव्यपरायणता पर षक की कैची चलती रही है
ईमान पर भेद के पत्थर बरसने लगे है,
कर्मपूजा खण्डित करने की साजिष होती रही है,
जातिवाद के पुराने घाव तराषे जा रहे हैं,
भेद भरी जहां में षोशित वर्ग बर्बाद हो चुका है
क्ल क्या होगा कुछ पता नही,कहा से कौन तीर छाती में छेद कर दे,
यही सोच-सोच सोच बूढ़ा हो गया हूं,
डम्र के मधुमास पतझड़ बना दिये गये है,
पतझड़ बनी जिन्दगी से बसन्त की उम्मीद लगाये बैठा हूं,
कर्मरत् मरते सपनों का बोझ उठाये फिर रहा हूं,
कलम बने हथियार,षोशित समाज की बन जाये मिषाल
इसी इन्तजार में षूल भरी राहों पर चलता जा रहा हूं.........
बेठा सुदर्णन अपने कर्म से विचलित ना होना,कर्म एक दिन जरूर निखरेगा,वैसे ही जैसे षिला घिस-घिसकरअनमोल रत्न बन जाती है। भले ही मुर्दाखोरो ने तुम्हारा भविश्य चैपट कर दिया हो।इस बस्ती के बच्चों के लिये तुम उदाहरण हो।
सुदर्षन-हां बाबा मै जानता हूं मेरे घर-परिवार के अलावा बस्ती के लोगों की उम्मीदें मुझसे हैं उन्हीं की दुआओं का प्रतिफल है कि दर्द में भी सकूंन ढू़ढता जा रहा हूं पर बाबा,
अपनी जहां के कैसे-कैसे लोग,तरासते खंजर कसाई जैसे लोग,
अदना जानकर लूटते हक,छिन जाते आदमी होने का सुख,
कर रहे युगों से कैद नसीब,अपनी जहां के लोग......
कैसा गुमान,वार, रार,तकरार, करते रहते लहुलूहान,
अदने का जिगर,भले ना हो कोई गुनाह,देते रहते,
भय षोशण,उत्पीड़न दिल को कराह...........
अपनी जहां उमें उम्र गुजर रही,अदने की जिन्दगी दर्द की षैय्या पर,
मुष्किलें हजार काटों का सफर,बेमौसम अंवारा बादल बरस रहे
डूबती उम्मीदें किनारे नही मिल रहे......
अदना हिम्मत कैसे हारे,मुर्दाखोरों की महफिल में सत्याग्रह कर रहा
हौषले की पतवार से जीने को सहारा ढू़ढ़ रहा,मुर्दाखोरों से चैकन्ना,
खुली आंखों से सपना बो रहा........
स्वामीनरायन-षाबाष मेरे लाल,तू जरूर बस्ती का नाम रोषन करेगा। मुर्दाखोरों के बीच रहकर भी तुम सत्याग्रह कर रहे हो अपने सपने बो रहे हो क्या यह सफलता से कम है।बेटा जो लोग गरीब,हाषियें के आदमी,षोशित वर्ग का उत्पीड़न,षोशण करते हैं,हक छिनते हैं, उनको आसूं देते हैं,वे लोग मुर्दाखोर तो ही होते है।ऐसे लोगों के बीच तुम टिके हुए हो यह तुम्हारी उच्च षैक्षणिक योग्यता और काबिलियत का सबूत है वरना ये लोग लील गये होते ।बेटा तू जरूर अफसर बेटा मुसाफिर का सपना जरूर पूरा होगा। मुर्दाखोर तुम्हें नही रोक पायेंगे। तुम्हारे साथ तुम्हारे मां-बाप और पूरी बस्ती की दुआयें है।देखो तुम्हें देखकर मरणासन्न सुखीराम के चेहरे पर रौनक आ गयी है।उनकी सेवा सुश्रुशा करो उठकर चलने लगेगे।वैसे अपनी षक्ति भर चक्रदर्षन और उसके बच्चे कर रहे है।मैं घर चलता हूं बूढ़िा इन्तजार कर रही होगी,मेरे खाने के बाद ही वह खाना खायेगी कहते हुए स्वामीनरायन बाबा उठे और अपने घर की ओर लपक पड़े।
सुर्दषन बाप के इलाज करवाकर षहर लौट आया।मन लगाकर नौकरी करने लगा।बाप के स्वास्थ की चिन्ता तो सताती रहती थी पर पापी पेट का सवाल था नौकरी तो करनी थी पर यह नौकरी तो दर्द के दरिया में डूबकर सुदर्षन को करना पड़ रहा था ।चैतीस साल की विभागीय सेवा में पांच छः बार प्रमोषन के अवसर तो आये पर वह हर परीक्षा पास करने के बाद मुर्दाखोर अफसरों के इषारे पर प्रमोषन से दूर फेके दिया जाता था।मुर्दाखोरों ने रगजीत,कामनाथ रतीन्द्रनाथ जैसे कई अन्य मुर्दाखोरों की पौध भी तैयार कर कर दिये थे जो विभाग को अपनी जागीर समझकर जमींदारी-सामन्तवादी सल्तनत कायम करने का भरपूर प्रयास कर रहे थे।सुदर्षन दर्द के दरिया में डूबा हुआ तो था ही,उसका कैरिअर तो पहले ही सामन्तवादी मुर्दाखोरो ने चैपट कर दिया था। उसे अब कैरिअर की चिन्ता तो थी नही बस वह इसलिये सत्याग्रह कर रहा था कि उस जैसे लोगों के लिये विभाग का दरवाजा खुले परन्तु सामन्तवादी लोग भी बहुत ढ़ीठ मुर्दाखोर थे।सुदर्षन नौकरी की उम्र के आखिरी छोर पर पहुंच चुका था इसी बीच फिर एक परीक्षा हुई उसमें भी वह पास हो गया पर पहले कि भांति फिर फेल कर दिया परन्तु सत्याग्रही सुदर्षन बोर्ड आफ डायरेक्टर के दफतर के सामने बैठ गया,बोर्ड आफ डायरेक्टर कोे सुदर्षन के सत्याग्रह के सामने झुकना पड़ा। सुदर्षन अफसर बन गया यह खबर उसके बाप को जीवनदायिनी साबित हुई और बस्ती के लिये दीवाली। असतकारी कम्पनी सतकारी के नाम से जानी जाने लगी और इस अन्र्तराश्ट्रीय कम्पनी के दरवाजे सब के लिये खुल गये। जमींदारी-सामन्तवादी मुर्दाखोर सल्तनत का अन्त हो चुका था। सुदर्षन का मुर्दाखोरो ने बहुत उत्पीड़न,षोशण किया,यदि उसके साथ न्याय हुआ होता तो वह बहुत बड़ा अफसर बनकर रिटायर होता इसका उसे मलाल तो था पर खुषी इस बात की थी कि वह मुर्दाखोरों का गरूर तोड़ चुका था सुदर्षन सत्याग्रह के पथ पर चलकर।भले ही छोटा अफसर था पर चहुंओर उसके सत्याग्रह की जयजयकार थी और मुर्दाखोरों की निन्दा।
डा.नन्दलाल भारती
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