मुसीबतों के बोझ बहुत ,
ढोये है,
खून के आंसू रोये है।
जमाने से घाव पाए है
कामयाबी से खुद को
दूर पाए है .
उम्र गुजर रही है
पत्थरो पर लकीर,
खींचते-खींचते ,
गुजर रहा है दिन,
संभावनाओ की ,
पौध सींचते-सींचते।
गम नहीं,
ना मिली कामयाबी
ना पत्थर पसीजा पाए
ख़ुशी है तनिक
काबिलियत के तिनके
रूप है पाए।
… डॉ नन्द लाल भारती
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY