आंख खुली भी नही थी कि बाप का साया सुखराज के सिर से उठ गया था।संघर्शरत् सुखराज जिद्दी स्वभाव का हो गया था।बडे़ छोटे भाई षहर और अपनी-अपनी ससुराल के होकर रह गये थे।सुखराज षरीर से बलिश्ठ था परन्तु अक्ल कम था उपर से जिद्दी।उसे अन्याय तनिक भी पसन्द नही था,भूमिहीन सुखराज अपने भाईयों की तरह षहर ना जाकर कृशि कार्य से जुड़ने का फैसला कर लिया।सुखराज को लगता था कि खेतों में काम करते हुए देखकर उसके पूर्वजों की आत्मा खुष हो जायेगी जिन खेतों का मालिकाना हक किसी जमाने में उसके पूर्वजो का था परन्तु छल-बल से जमींदरारों ने सर्वस्व हड़प लिया था।पूर्वजों की आत्मा की षान्ति के लिये सुखराज ने माटी से जुड़ गया था।सुखराज बाप ही नहींे दादा परदादा षहर जाकर पेट-परदा चलाने का उद्यम करते थे।उसूलपसन्द सुखराज जमींदारों की परवाह नही करता था।सुखराज खुद अनपढ़ था और उसकी जीवनसंगिनी भी।सुखराज पढना तो चाहता था परन्तु स्कूल में जाना मतलब गांव के दबंगों का लात-मुक्का खाना था,स्कूल जाने का सामाजिक बहिश्कृत सुखराज और उसकी जाति जैसे कई जातियों को स्कूल में प्रवेष वर्जित था।सुखराज की जीवनसंगिनी तनिक समझदार और मेहनती थी क्योंकि उसके पिता कलकता में किसी चटकल में काम करते थे।षायद इसी प्रभाव से उसमें अच्छी अक्ल थी।सुखवन्ती को दुधारू पषु जैसे गाय,भैंस बकरी पालने का बहुत षौक था। सुखवन्ती की वजह से घर में खाने की कमी नहीं थी।सुखराज हल जोतने फसल बोने के अलावा हींग में पानी नहीं डालता था बाकी सब काम सुखवन्ती के माथे होता था। जनाब को कुष्ती का षौक था,षौक पूरा करने के लिये अखाड़े की षरण में होते थे।सुखराज जबान का कड़क ही नहीं खरा भी था।अन्याय उसे पसन्द नहीं था वह जुज्म के खिलाफ मुखरित हो जाता था। सुखराज को छल,चोरी बेईमानी से सख्त नफरत था परन्तु जमींदारों कि षानो षौकत के यही तो मूल हथियार थे। एक दूसरे के बीज नफरत फैला का राज करने की उनकी वंषागत नीति थी,हाषिये के आदमी के बीच भय, आतंक फैलाकर उनकी सम्पति हड़पना उनके लिये खेल जैसे था।यही कारण है कि देष का मूलनिवासी गरीबी,षोशण,बेरोजगारी और भूमिहीनता का दंष झेल रहा है। सरकार आंख मंूदे राजकाज में व्यस्त रहती है,दबंगों का समर्थन सरकारे भी करती है,आमआदमी का उद्धार सरकार भी नहीं चाहती है सुखराज ताली ठोंक कर कहता। सुखराज की निर्भीकता से कई बार उसकी जान आफत में आ गयी थी। गांव के उच्चवर्णिक प्रधान का बेटा मेटी ने उसका कत्ल करने के लिये भरी दोपहरी में गांव वालों के सामने दौड़ा लिया परन्तु दामराज बूढे जमींदार,जिनकी खेती वह बंटाई पर करता था। उस जमाने में अमानुशता की पताका फहर रही थी। कमजोर वर्ग जोर से सांस ले लिया था अपराध हो जाता था। गांव के दबंगों के षोशण और अत्याचार से घबराकर सुखराज गांव नही छोड़ा यदि चह गांव छोड़ देता तो दबंग उसके घर भी लालाजी के हाथ दस-बीस रखकर लिखवा लेते।सुखराज का जुनून तो बस मांटी से जुड़कर पुरखों की आत्मा को षान्ति देने का था ।वह इस काम को सिद्दत से पूजा की तरह कर रहा था।उसकी कमाई में बरक्त भी हो रही थी।उके बच्चे स्कूल जाने लगे थे,स्कूल जाने का सपना सुखराज का नही पूरा हुआ था,अब उसका स्कूल जाने का सपना बच्चे पूरा कर रहे थे।
21 जून का दिन था रात में तेज बरसात हो गयी। कुछ मध्यम और निम्नवर्गीय किसान,येतिहर मजदरू रात में ही बरसात का पानी रोक कर धान की नर्सरी डालने का इन्तजाम कर लिये थे। सुखराज भी कहां पीछे रहने वाला था ।वह भी भोर में उठा और खेत की मेड़बन्दी कर पानी रोक आया। नर्सरी के लिसे पर्याप्त पानी तो हो गया था,खेत तो पहले से तैयार कर रखा था । अब मुष्किल थी धान के बीज की, सुखराज उदास वापस आया और सुखवन्ती से बोला कुंवर की मां खेत तो तैयार हो गया पर धान के बीज का इन्तजाम कैसे होगा। बाजार में आग लगी है। तुम कामकाज बाबू की हवेली जाकर बाकी मजदूरी धान की ले लेती तो,नर्सरी पड़ जाती।
म्जदूरी में सबसे खराब अनाज मालकिन देती है,ऐसे धान की नर्सरी डाल कर क्या करोगे,बीसा भर खेत रोवने लायक नर्सरी की पौध नही होगी सुखवन्ती बोली।
ऐ तो धर्मसंकट आन पड़ा भाग्यवान सुखराज माथा ठोंकते हुए बोला।
कोई धर्म संकट नही,इन्तजाम हो जायेगा सुखवन्ती बोली।
इतना सुनते ही सुखराज के चहेरे पर मुस्कराहट आ गयी था वह मुस्कराते हुए बोला कैसे इन्तजाम करोगी।
सुखवन्ती -सुना है बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।
तुम बुझनी मत बुझाओ,इन्तजाम कब तक हो सकता है खेत तैयार है,धान की नर्सरी डालना है।
अभी सुखवन्ती बोली।
सुखराज वो कैसे ?
कुंवर के बाबू गृहिणी हूं, घर गृहस्ती चलाने के गुण मुझे विरासत में मिले है,मुट्ठी भर भर नर्सरी लायक पसेरी भर अच्छे धान काट-कपट कर भूसा में रखी हूं।नर्सरी के लिये पर्याप्त होगा।
सुखराज-तुमने तो डूबती नईया उबार लिया कुंवर की मां ।
सुख्सव्ती नरनारी दोनों एक समान, मिलकर षक्ति बनाते महान,अब जाओ,नर्सरी डाल आओ।सुखराज ने समय रहते नर्सरी डाल दिया। समय पर रोपाई भी हो गयी। धान की फसल बंटाई के खेत में अच्छी लग गयी थी परन्तु पुरखों की विरासत बीसा भर खेत में तो धान खूब लगा हुआ था।बीसा भर खेत से पच्चास किलो धान की पैदावार होने की उम्मीद सुखराज लगा रखा था। एक दिन सुखवन्ती अपने बीसा भर खेत में लगे धान में से अधपका धान काट कर ले आ रही थी।तभी उस पर गांव के जमीदार चोथूबाबू की मुर्दाखोर नजर सुखवन्ती पर पड़ गयी।वह अपने घरेलू नौकर जयन्त को सुखवनती के पीछे पालतू कुत्ते की तरह दौड़ा दिया। जयन्त सुखवन्ती से आगे निकलकर रास्ता रोक लिया और बोला चलो तुम्हें जमींदार ने तलब किया है।सुखवन्ती गुस्से में लाल हो गयी वह बोली हट जा जमींदार के कुत्ते वरना हंसिये से लाद फाड़ दूंगी।
जयन्त लाद फड़वाने के लिये रास्ता नहीं रोका हूं मैं तो मालिक का हुक्म बजा रहा हूं चलों चोथू बाबू बुला रहे है।
सुखवन्ती क्यों............?
जयन्त-धान की चोरी के जुर्म में।
सुखवन्ती-डकैतों के यहां चोरी होने लगी।
जयन्त-क्या बक रही हो मालूम है क्या कह रही हो।
सुखवन्ती-जमींदार कितने बड़े डकैत है दुनिया जानती है,तू नही जानता।क्या ये लूटेरे इतनी जमीन लेकर आये थे।हम लोगों की जमीन को हड़प कर ये हमारी छाती पर बैठकर राज कर रहे है।ये परजीवी हमारा खून पीकर हमें ही डंस रहे है।
जयन्त-हवेली चलना पड़ेगा।
सुखवन्ती-क्यों ?
जयन्त-सच्चाई साबित करने के लिये।
सुखवन्ती-सांच को आंच कहां। चोर तो वो है,हम चोर होते तो हमारे पास भी लूटी हुई चल अचल सम्पति तो होती।मैं घर जाउंगी बच्चे भूख है।
जयन्त-चोरी का इल्जाम पुख्ता हो जायेगा।
सुखवन्ती-ये बात चल रास्ते से हट मैं चल रही हूं।
जयन्त-जुमने की ना अब झलकारीबाई जैसी बात। चल अब ऐ हंसिया चोथू जमींदार के सामने भांजना।
सुखन्ती-डैकतो ने सामाजिक और आर्थिक रूप से भले ही गरीब बना दिया है पर हम चोर नही है।
जयन्त-ये सफाई हमें क्यों दे रही हो,जमींदार चोथू को देना।
सुखवन्ती-जमीदार तो तुम्हारा जातीय भाई है भले ही तुम उसके नौकर हो,हंसिया तो अपनी ही तरफ खींचता है।
जयन्त-हम तो जमींदार के हुक्म के गुलाम है।तुम अपनी फरियाद जमींदार से करना।
सुखवन्ती-मुंह फुकवने के खलिहान में धान का पहाड़ पड़ा रहता है,कभी मुट्ठी भर धान उठायी नही,आज खड़ी फसल से णान काटने की चोरी लगा रहा है।देखना जमीदार का नाष हो जायेगा एक दिन दरवाजे पर सियारिन फेंकरेगी।सुखवन्ती जोष में हवेली की तरफ बढ़ी जयन्त पीछे-पीछे चलने लगा।चोथू जमींदार बगुले जैसे धोती कुर्ता पहने और उपर से षाल डाले हवेली के बाहरी गेट पर खडा़ था।सुखवन्ती धान का बोझ चोथू जमींदार के सामने पटक दी।
चोथू जमींदार-मेरे सिर पर पटकने का इरादा था क्या ? एक तो चोरी दूसरे सीना जोरी।
सुखवन्ती-चोरी कैसी जमींदार बाबू ?
चोथू-कहां से काट कर ला रही हो ये अधपका धान ?
सुखवन्ती-तुम्हारे बावन बीगहा में ऐसा धान है क्या ?
चोथू-धान का बोझ उठाकर भैसों के आगे डाल दो जयवन्त।
चोथू जमींदार का हुक्म पाकर जयन्त धान के बोझ की तरफ लपका।इतने में सुखवन्ती हंसिया घुमाते हुए बोली ये अधपका धान बच्चों का पेट भरने के लिये अपने खेत से काटकर ले आ रही हूं। हाथ लगाया तो सचमुच लाद फाड ़दूंगी भले ही मुझे जेल जाना पड़े। सुखवन्ती की ललकार सुनकर जयवन्त थर्रथर्र कांपने लगा।
चोथू-आरक्षण क्या मिल गया दो टके के लो बाबू लोगों के पेट फाड़ने की धमकी देने लगे।
सुखवन्ती-आरक्षण की दस्तक अभी चैखट-चैखट नहीं पहुंची है बाबू ,जिस दिन संवधान की गंूज हर चैखट तक पहुंच गयी समझो हाषिये के लोगों के भी अच्छे दिन आ गये।हवेली वालों की अमानुशता का ऐसे ही नंगाप्रदर्णन होता रहा तो हवेलियों से सियारिन के फेकरने की आवाज गंजा करेगी। ना सताओ गरीबों को जमीदार बाबू।इतने में बड़ी मालकिन और बोली सुखवन्ती इतना बड़ा श्रपा क्यों दे रही है।
सुखवन्ती-गरीबों के पेट पर लात मारो,सम्मान को पैर तले कूचल दोएतुम्ही बताओ बड़ा मालकिन रोती आत्मा की देगी ?
बड़ी मालकिन-चोथू बाबू ये सब क्या हो रहा है।
चोथू जीमंदार-मांताश्री ये सुखवन्ती दिन दहाड़े अधपका धान काट कर ले जा रही थी।जयवन्त घेर कर लाया है।चोरी छिपाने के लिये नौटंकी कर रही है।
बड़ी मालकिन-जयवन्त क्या सच है बताओ।
जयवन्त- बड़ी मालकिन सुखवन्ती को घेर कर जरूर लाया हूं पर खेत से धान काटते हुए नही पकड़ा हूं।
सुखवन्ती-बड़ी मालकिन तुम भी जानती हो गरीब चोर नही होता।कान खोलकर सुन लो हमारी गरीबी का कारण दबंग लोगों और धर्मसत्ता का अंधा कानून है।
बड़ी मालकिन-जानती हो क्या बक रही हो ?
सुखवन्ती-बिल्कुल होषो हवास में बक रही हूं मालकिन।तुम्ही बताओ मालकिन हवेली से खलिहान तक फसल आने पर धान का पहांड़ खड़ा रहता है,कभी मुट्ठी भर धान ली नही ंतो आज तुम्हारे खड़े खेत से बोघ पर अधपका ाान कैसे काट लूंगी।मेरा गौना आये बीस साल हो गये, मालकिन तुमको आये चालीस साल तो हो गये होगे।
बड़ी मालकिन-ठीक कह रही है,जब मैं आयी थी तो सुखराज बहुत छोटा था । मेरे आने के बाद सुखराज हवेली काम करने आने लगा था।
इतने बरसों में कभी मुझे चोरी करते देखा मालकिन.......कभी मुटठी भर धान खलिहान से लेते देखा हां या नहीं यदि हां तो चोथू बाबू के सिर पर हाथ रखकर कह दो मैं मरते दम तक गुलामी करने को तैयार हूं।
बड़ी मालकिन-बेटवा के सिर पर हाथ रखकर कसम क्यों ?
सुखवन्ती-सच से पर्दा उठाने के लिये।
बड़ी मालकिन बोली जयवन्त धान का बोझा उठाओ और सुखवन्ती के घर पहुंचाकर आओ।जाओ सुखवन्ती तुम्हारे भूखे बच्चे इंतजार कर रहें होगें।
चोथू क्या कह रही हो माताश्री सुखवन्ती ोटी बिरादरी की है,जयवन्त भले ही हवेली में काम करता है,है तो उंची बिरादरी से।
मालकिन एहसान नही हम गरीब अपना बोझ उठा सकते है। मैं अपने बीसा भर खेत से आपका धान काटकर ले जा रही हूं ना कि तुम्हारे बावन बीगहा से चोथू बाबू । दर्द देने वालों को दुआ कौन देता है मालकिन । दर्द से उठे कराह से एक ना एक दिन तूफान जरूर आता है। बड़े-बड़े राजा-महाराजा खाक में मिल गये,जिनके राज में सूरज नही डूबता थाएउनका नामोनिषान मिट गया,ये जमींदारी कितने दिन की सुखवन्ती कहते हुए घर को चल पड़ी,जहां बच्चे भूखे इंतजार कर रहे थे ।
धीरे -धीरे संविधान और आजादी की असर हाषिये के लोगो तक पहुंचने लगा,हाषियें के लोग षिक्षित,उच्च षिक्षित होने लगे। षिक्षा की ताकत षेर की तरह दहाड़ने लगे,दबे कुचले तरक्की की राह अग्रसर होने लगे। उधर हवेली की हुकुमत खाक में मिल गयी। हाथी पर चढ़ कर आतंक मचाने वाले,आग में मूतने वाले जमींदार खाक में मिलने लगे। धीरे -धीरे हाषिये के लोगो, दबे कुचले लोगों का खून वाले जमींदार और वैसे ही दूसरे परजीवी किस्म के दर्द देने वाले मुट्ठी भर धान के लिये तरसने लगे। जमींदारों के वारिस दबे कुचले गरीब लोगों की हड़पी गयी जमीनें बेंचकर षराब,कबाब के अपने पुष्तैनी षौक को पूरा करने में जुट गये थे। उधर जिन चैखटों पर दरिद्रता का ताण्डव था उन्हीं हाषिये के लोगों की संघर्शरत् औलादें पढ़ लिखकर विकास के पथ पर दौड़ने में जुट गयी। अब हाषिये के लोगों के लिए संविधान धर्मग्रथ बन चुका था,मुटठी भर धान से उपजा दर्द उनके लिये स्वर्णिम अवसर बन चुका था। अब उनके पास संविधान से प्राप्त मौके थे,हाषिये के लोग संविधान की अथक जयजयकार कर रहे थे। नास्तिक सुखराज आ आस्तिक हो गया था और महान संविधान निर्माताओं की पूजा भगवान की तरह करने लगा था।
डां.नन्दलाल भारती
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