रात सो चुकी थी ,
मेरी आँखों से नींद दूर थी.
रह-रह कर करवटें
बदल रहा था ,
हर तरफ से भूत कोई
आँखों में उतर रहा था।
मैं आतंक से भयभीत था
लहू से रंगा खंजर हाथ में था
गैर नहीं कोई अपना ही था
दिल में लकीरों का
ताना-बाना था
अब घरौंदा उजड़ने लगा था .
चहुतरफा घेराव था ,
रिश्ते से लहू रिस रहा था।
भयभीत मैं,
वह मुस्करा रहा था
मौजूद तबाही का पूरा ,
साजो-सामान था।
मैं सुलग रहा था
खुद के तन के ताप से ,
विजयी मुद्रा में
वह तर बतर था जाम से।
बरबादियो का शंख ,
फूंक चुका था ,
मै निरावाद जाल में ,
फंस चुका था।
रात चुप थी मैं बेचैन था,
कल से उम्मीद थी ,
आज से डर था।
लहू का प्यासा,
ताल ठोंक रहा था
उम्मीदों के बंजर को भारती
आंसुओ से सींच रहा था
…… डॉ नन्द लाल भारती
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