हे भगवान ये कैसी आजादी है। नेता लोग मलाई छान रहे है।मन्त्री बन गये तो कई पीढ़िया आबाद हो गयी। बेचारे भूमिहीन,मजदूर गरीब हाषिये के लोग जीवन भर तंगी में बिता देते है। मरने के बाद वारिसों पर कर्ज का भार छोड़ जाते है। देखो बेचारी भुजिया मर गयी । अफसरों के सामने गिड़गिडाती रही कि साहब पंचायत भवन बनाने से पहले आंवण्टन करवा दो। गांव के जमीदार लोग पच्चासों एकड़ गांव समाज की जमीन हथियायें बैठे है,मजदूर बस्ती के सामने दो बीसा भर खाली उंची-नीची जमीन थी। जहां बस्ती की बहू बेटियां सुबह षाम क्रिया-कर्म से निवृत हो लेती थी। उसी जमीन पर पंचायत भवन बनने जा रहा है। जबकि पोखरी के उस पार एकड़ो में जमीन है,दबंग जमीदार का कब्जा है। उसी पर बनवा देते पंचायत भवन पर प्रधान की जिद बस्ती की बहू-बेटियों के क्रियाकर्म से निवृत होने की जगह छिन ली।देखो आज बेचारी भुजिया दवादारू के अभाव में मर गयी। मेहनत मजदूरी कर बच्चे पालने के अलावा कुछ सूझा ही नही।दस पांच बीसा जमीन होती तो इतनी बुरी मौत तो ना मरती कहते हुए दुखरन भुजियादेवी की लाष से कुछ दूरी पर बेहोषी की हालत में पसर गये। कुछ बड़बड़ाते हुए बोले अरे लाष धूप में क्यों सूखवा रहे हो महतारा ले जाकर कफन दफन कर देते। फिर कुछ सोच कर वह खुद ही बोले कफन भी तो महंगा है गरीबों के लिये। गरीबों की नसीब में कफन भी कहां। सब तो चट कर रहे दीमक जैसे चेहरा बदल-बदल कर डंसने वाले लोग। दम भरते हुए बोले अरे सूरज डूबने वाले हैं भुजियादेवी को सड़ा क्यों रहे हो।ष्मषान ले जाकर फूंक-ताप देना चाहिये था।
गरजू बोला काका फूकहरन की इंतजार है।
दुखहरन- कहां गया है।
गरजू-दिल्ली प्लास्टिक की कोई मोल्डिंग मषीन होती है।सुना है वही चलता है।क्या करता गांव में बंधुवा मजदूरी से छुटकारा पाना था।दो अक्षर पढ़ क्या गया सोचा षहर में कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी पर देखो चालीस साल से मोल्डिंग मषीन चला रहा है मड़ई से आगे नही बढ पाया। बेचारे की मां दवाई के लिये रिरिक-रिरिक कर मर गयी।घरवाली मर गयी। सुना है वह भी टीबी का ष्किार हो गया है। दिल्ली से चल दिया है रात दो बजे तक आयेगा।इसके बाद कफन-दफन होगा।
दुखहरीदेवी-बेचारी भुजियादेवी प्रधान के सामने रिरकती रह गयी कि प्रधानजी आवंण्टन करवा दो दस बीसा मिल जायेगा तो अपना भी जीवन ठीक से बीतने लगेगा। प्रधान बोले आवंण्टन के लिये गांव समाज की जमीन कहा है।
भूखहरीदेवी-आंसू पर काबू करते हुए बोली सब बेईमान है। अपने गांव में इतनी जमीन है कि सभी बस्ती के पच्चीस परिवार को एक-एक बीघा जमीन भी मिल जाती इसके बाद भी जमीन बच जाती पर। बाबू लोगों के सामने साहब सुबा प्रधान और निअमर सब भींगी बिल्ली हो जाते है। गांव का कोई ऐसा जमींदार नही है जो पांच से दस बीघा गांव समाज की जमीन दबा कर नही बैठा है।इसके
बाद घुर और खरिहान के लिये भी जमीन पर अवैध कब्जा है। मजदूर बस्ती के लोगों के पास मड़ई बनाने का कोई इन्तजाम नही जबकि सदियों से इसी गांव के निवासी है। वाह रे अमानुश लोग।
दूधई-बस्ती के सभी लोगों ने पंचायत नही बनने देना चाहते थे।अरे यही तो तनिक भींटा था जहां बच्चे औरते क्रिया-कर्म से फारिक होते थे उस पर ये पंचायत भवन खड़ा हो गया। बताओ पंचायत भवन से मजदूरों का क्या भला होने वाला है। भुजियादेवी ठीक कह रही थी पंचायत भवन बनाने से पहले आवण्टन करा दो प्रधानजी पर गरीबों की कब सुनी गयी है कि अब सुनी जाती।जिन्दगी भर की आस भुजियादेवी की नही पूरी हुई आखिरकार आवण्टन नही हुआ तो नही हुआ। आजादी के दसकों बित गये कितनी सरकारे आयी गयी पर गांव के बाबू लोग आवण्टन नही होने दिये। मजदूरों की बस्ती के मुहाने पर पंचायत भवन बनवा दिये लाखों डकार गये। पंचायत भवन तो भूमिहीन मजदूरों के मुंह पर तमाचा है। मैय्यत में आये लोग रायषुमारी में लग गये। दसई भी टिकठी बनाकर एक तरफ रखा और वह भी पंचायत भवन और आवण्टन में से बस्ती के मजदूरों के लिया पहले क्या जरूरी था दूधई से पूछा ।
दूधई बोला-देखो सबसे पहले पेट की आग मिटाने का इन्तजाम होना था। यकीनन बस्ती के मजदूरों के लिये आवण्टन बहुत पहले हो जाना था ।
गरजू गरजते हुए बोला अब आवण्टन का ख्याल अपने मन से निकाल दो ।
लछई-क्यों दादा ।
गरजु-तुम नही जानते क्या......?
लछई-मैं क्या नही जानता दादा बता देते तो जान जाता ।
गरजु-बेटा आवण्टन न हो इसके लिये गांव के बाबू लोगों ने कितनी बड़ी राजनीति खेली है।
दसई-कैसी राजनीति भईया ।
गरजु-ऐसे पूछ रहे हो जैसे जानते नही।अरे घड़ई गांव के पास से लगी एकड़ो जमीन पर बाबू लोगों ने कच्चे-पक्के घर बनवा कर ताले जड़ दिये है। एक दो घर दूसरे गांव के लोगो को बनवा दिये है।अब बताओ जब जमीन खाली थी तो बदमाष बाबूलोगो ने आवण्टन होने नही दिया । बाकी जमीन पर खुद बड़े-बड़े भूमि मालिक कब्जा जमाये हुए है। उनसे जमीन खाली करवाना समझो बस्ती में आग लगवाना होगा ।
दसई-भईया एक बार आवण्टन हो जाने दो,सब खाली कर देगे। समस्या तो ये है कि आवण्टन नही हो पा रहा है आजादी का सत्तरवां दषक समाप्ति की ओर है । इस पिछले गांव के दबे-कुचले भूमिहीनों का लूटा भाग्य गांव के जमींदारों ने आबाद नही होने दिया। अपने गांव तक पहुंचते-पहुंचते सारे सरकारी नियम कायदे बौने हो जाते है।
लछई-हां काका ठीक कह रहे हो आजादी के बाद पहली बार बस्ती से कहरूलाल प्रधान बना था। उस प्रधानी के चुनाव के लिये बस्ती वालों ने कितनी त्रासदी झेली था बाबू लोगों का अत्याचार सहा था। वोट न देने जाने की खुलेआम धमकी आती थी। जान-माल पर खतरा ही खतरा था । बस्ती के कई मजदूरों को सिर फूटा,हड्डी टूटी थी। बस्ती छावनी बन गयी थी । अपना उम्मीदवार जीता भी पर हुआ क्या ...?
गरजु-क्या कर सकता है। अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है क्या ? उप प्रधान,सदस्य सब तो उंची जाति वाले थे अगर उनसे मिलकर नही रहता तो जान से हाथ धो जाता। नन्हे नन्हे उसके बच्चे अनाथ हो जाते।
लछई- कैसी बात कर रहे हो। कहरूलाल करने चाहता तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता पर उसको लालच आ गया। योजनाओं का फायदा गांव के जमींदारों को देने लगा,बस्ती की तरफ उसका ध्या नही नही गया ।
गरजु-बस्ती के उत्थान का काम करता तो प्रधानी जाने का डर था। उपर से कातिल लोग भ्रश्ट्राचार के मामले में जेल पहुंचा देते।
लछई-कुछ भी कहो कहरूलाल के बचाव में मैं तो यही कहूंगा कि आरक्षण प्राप्त एम.एल.ए.,एम.पी जैसे अपनी राजनैतिक पार्टियों के होकर रह जाते है,अपना मकसद भूल जाते है। कभी सुना है कोई एम.एल.ए.,एम.पी षोशितों के उपर हुए जुल्म के खिलाफ कभी धरना प्रदर्षन किया है। वैसे ही अपना कहरूलाल प्रधान किया गांव के दबंगो को दारू पार्टी देता रहा अपनी प्रधानी के रक्षा में। कौन जाये रिस्क लेने आवण्टन करवाने। चाहता तो सब करवा लेता पर कुछ किया नही। वह भी जानता था पांच साल के बाद वह ही नही कोई बस्ती का प्रधान नही बन पायेगा। कुछ करता या न करता पर आवण्टन तो करवा देता पर नही हां बस्ती के मुहाने पर पंचायत भवन बन गया। बस्ती वालों को चिढ़ाने के लिये। खाने का इन्तजाम नहीं पेषाब तक करने को अपनी जगह नही,पंचायत भवन का क्या होगा ।षादी ब्याह के मौके पर भी तो नही मिलेगा।
दसई-तुम भी लछई कैसी बात कर रहे हो। जिस बस्ती के कुयें का पानी अपवित्र हो,उा बस्ती के लोग पंचायत भवन में जष्न कैसे मना सकते है। जष्न तो बाबू लोगों का मनेगा,ना जाने कहां कहां से लोग आये बस्ती के सामने नंगा नांच करेगे। बस्ती वालों का निकलना भारी पड़ जायेगा।
गरजु-यही तो हो रहा है। धान रोपाई के लिये पिछली साल जो बिहारी मजदूर आये थे पंचायत भवन में ही तो टिके थे महीने भर।रात भर सोना मुष्किल हो जाता था। गांव के मजदूरों की मजदूरी भी ये परदेसी मजदूर मार रहे है उपर से चैन भी छिन रहे है। अब तो हर साल दोनांे सीजन में यही होने वाला है। परदेसी मजदूर ससुरे गले में धागे पहने हुए थे कहते थे वे उंची जाति वाले है। ससुरे हमारी हैण्डपाइप के पानी से परहेज करते थे। उधर बाबू लोग अपना बर्तन तक छूने नही देते थे।रात भर यही बस्ती के मुहाने पर बनाते खाते थे नाच गाना करते थे। बहन बेटियों का बाहर निकला मुष्किल हो जाता था।
लछई-बाबू लोगो की चाल थी पंचायत भवन बस्ती के मुहाने पर बनवाने में । कहने को तो हो जायेगा कि बस्ती के मजदूरों का बहुत विकास हो गया है।
दूधई-दूर से देखने पर तो यही लगता है। देखने वाले कहते है कि बस्ती के मजदूर बहुत सम्पन्न हो गये है।यहर हाल ये है कि सुबह खाओ तो रात की चिन्ता रात में खा लो तो सुबह की चिन्ता इसी चिन्ता में पूरी बस्ती सदियों से जीम र रही है। बाबू लोग इसका भरपूर फायदा उठा रहे है।मजदूरों के बच्चे है कि पढ़ लिख नही पा रहे है। खैर बेचारे पढ़ेगे लिख्ेागे कैसे खाने पहनने को तो पहले चाहिये। होष संभालते ही मां -बाप की मदद के लिये पुष्तैनी पेषा बाबू लोगों के खेत में पसीना अपना लेते है। अब तो परदेसी मजदूरो ने वह भी रोटी-रोजगार छिन लिया है।मनरेगा से भी तो कुछ भला नही हो रहा है।दस दिन काम मिलता है वह भी प्रधान जिसको चाहे। मजदूरी में से कमीषन भी प्रधान को चाहिये तो कैसे बस्ती के मजदूरो का भला होगा।
नथई-इससे भला तो नही हुआ है, बुरा होने लगा है।
सिधई-वो कैसे .....?
नथई-मनरेगा से तनिक कमाई क्या होने लगी । बस्ती के सामने देषी मदिरा की दुकान खुल गयी। पांच रूपया दस रूपया में एक पन्नी मिलती है लवण्डे नषेड़ी होते जा रहे है। क्या उयही तरक्की है।
दूधई-सरकारी नीति है मजदूरों के पास पैसा रहने मत दो। यदि पैसे टिक गये तो उनके बच्चे पढने लिखने लगेगे,मजदूर कौन रहेगा। इसीलिये तो हर एक कोस पर मदिरा की दुकान खुल गयी है।घर में खाने का इन्तजाम नही मेहनत मजदूरी करने वाले षाम को पीना अपनी षान समझने लगे है। सोचा जरा जहां इलाज उपलब्ध नही है। ज्वर बुखार में लोग मर जाते है। डाक्टर है नही ऐसे गांव में दारू की दुकान का क्या औचित्य?
सिधई-है ना गरीब को गरीब बनाये रखने की साजिष।देखो ना बस्ती के मजदूरो को दस बीसा जमीन का टुकड़ मिल गया होता तो कमाते खाते। गांव समाज की जमीन रहते हुए भी आवण्टन नही हो सका आजादी के बाद भी ऐसी आजादी किस काम की बस आजाद देष की हवा पीते-पीते जीवन गुजार दो।
नथई-दस बीसी जमीन होती तो भुजियादेवी की हालत तो ऐसी न होती। फूकहरन दिल्ली में कोई अफसर तो है नही। प्लास्टिक मषीन गदहे जैसे खींचता है। उससे जो बच जाता है बाल बच्चों को भेजा रहा है। अगर दस बीसा जामीन होती तो कम से कम रोटी का इन्तजाम तो हो जाता।
सिधई-यह हाल तो 25 घर की बस्ती में बीस घर का है।
सुखई-आजाद देष के गुलाम हम तो है। तभी तो हमारी देष जानवरों जैसी है। गरीबी की वजह से बच्चे पढ़ नही पा रहे है। बस्ती के लोग जवानी में बूढे होकर बेमौत मर जा रहे है।भुजियादेवी का गौना तो हमारे सामने ही आया था। पच्चास साल की उम्र पूरी नही कर पाई। देखने में लग रही थी भुजियादेवी की काया सौ साल पुरानी हो।जीविका का पुख्ता साधन होता तो असमय नही मरती।आज भी बस्ती के मजदूरों की उम्मीदे आवण्टन पर टिकी हुई है पर गांव के प्रधान और दबंग बाबूलोग न तो आवण्टन होने दिये और न होने दगेे। अरे दबंगो बस्ती वालों की गरीबी तुम्हारे मुंह पर तमाचा है। भईया पंचायत भवन बस्ती के मुहाने पर तो ऐसा लग रहा है जैसे कोढ़ी काया को सूट-बूट पहना कर खड़ा कर दिया हो। सचमुच बस्ती के मजदूरो को आवण्टन चाहिये तो क्रान्ति लानी होगी।
नथई- ये क्या होती है।
सिधई-सड़क जाम करो । अब तो हाईवे अपनी बस्ती के सामने ही है दूर तो जाना नही है। एक बार मन से सभी बस्ती के मजदूर इकट्ठा होकर हाईवे बन्द कर दे देखो सरकार तक आवाज पहुंचती है कि नही।आवण्टन भी होगा कैद नसीब आजाद भी होगी पर इसके लिसे करो या मरो का नारा बुलन्द करना होगा।
सुखई-बात तो ठीक है और कितने युग हमारे लोग बेसहारा लावारिस,अछूत,मजबूर बने रहेगे क्रान्ति तो लाना ही होगा। क्रान्ति के बिना अपने गांव में न तो आवण्टन हो सकता है और न हमारी बस्ती में तरक्की आ सकता है।
गरजु- फिर गरजा अरे तू क्रान्ति की बात कर रहा है। घरवाली और बच्चों को कितना दुख दे रहा है कभी सोच है। तुम्हारी लत न परिवार को और दरिद्र बना दिया है। बच्चों को न खाने का इन्तजाम न पहनने का इन्तजाम कर पा रहा है। जो कुछ तुम्हारी घरवाली मेहनत मजदूरी कर लाती है ठीहे पर बर्बाद कर आता है। खुद की कमाई में तो आग लगा ही रहा है। पहले अपने घर को देख पर बस्ती सुधारने निकलना ।
सुखई-दौड़ते हुए गया,भुजियादेवी की लाष पकड़कर बोला गरजु दादा मरी भौजाई कि कसम अब अपने घर की हालत सुधार कर रहूंगा। आज से मेरे लिये दारू मानव मल के समान होगा।
गरजु-यही तो मैं चाहता हूं बस्ती के सारे नवजवान तौबा कर ले हर तरह की नषा से। आ मेरे षेर गला लग जा। मुझे यकीन हो गया मेरी बस्ती में भी तरक्की आयेगी। भले ही बाबू लोग साजिष रचते रहें। आज से सब दारू गांजा पीने वाले कसम खा ले सुखई की तरह।
इतने में महिलाओं का रूदन तेज हो गया। गरजु बोला अरे देखो फूकहरन आ गया।
नथई-अरे बाप रे फूकहरन की हाल तो भुजियादेवी जैसी हो गयी है।ये भी अब ज्यादा दिन का मेहमान नही। प्लाटिक की मषीन इसकी जीवन छिन चुकी है।
गरजु-गरजते हुए बोला क्या उगल रहा अपनी काली जबान से। उसकी बेटी का ब्याह सिर पर है,घरवाली बिछुड़ चुकी है सदा के लिये। बेटवा की गृहस्ती अभी बस नही पायी है। तुम्हारी जबान पर ना जाने क्या यमराज बैठे है।
नथई- फूकहरन की हाल तो देखो।
गरजु-अब अपनी जबान पर ताला लगा वरना तेरी जबान मेरे हाथ में आ जायेगी।
सिधई-क्या कानीफूसी कर रहे हो,कफन-दफन की तैयारी करो।
गरजु-तैयारी क्या करना है। सब तो हो चुका है। लाष टिकठी पर बांधनी है फूकहरन को आखिरी बार भुजियादेवी का चेहरा तो देख लेने दो।
फूकहरन ने कफन हटा कर भुजियादेवी का चेहरा देखने लगा पर वह खड़ा नही हो पाया मुर्छा खाकर धड़ाम से गिर पड़ा। गरजु दौड़कर हैण्ड पाइप से लौटा भरकर पानी लाया फूकहरन के मुंह पर छींटा मारा। कुछ देर बाद फूकहरन उठ बैठा। भुजियादेवी का जनाजा ष्मषान की ओर चल पड़ा। बस्ती की छाती पर खड़ा पंचायत भवन जैसे रिसते घाव को छिल-छिल विनोद कर रहा था ।
डां.नन्दलाल भारती
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