Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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परायापन

 

 

अक्टूबर का महीना था ।धान की फसल युवावस्था में थी । मेड़ो पर से पानी कल कल कर बह रहा था । नदी पोखर सब लबालब थे । लोग धान की निराई में लगे हुए थे । द्वार तक पानी भरा हुआ था । दरवाजे के सामने खटिया डालने भर की सूखी जमीन नही थी । रह रह कर बादल उमड़ रहे थे । जोरदार बारिस की उम्मीद बनी हुई थी । इसके बाद भी गांव से कुछ दूर बूढे बरगद के नीचे लोग सुबह से ही जमा हो रहे थे । हीरा साहब के घर से औरतों के रोने की आवाज लोगों के दिल को दुखा रही थी । बाबूजी बाबूजी कहकर बेटी बहू, छाती पीट पीट कर रो रही थी ।हीरा साहब के मरे आज दस दिन हो गये थे ।बूढे बरगद के नीचे घट बैठ रहा था ।हीरा साहब षहर में बडे़ पद से रिटायर हुए थे ।हीरा साहब जब भी नौकरी से गांव आते दूर दूर से लोग मिलने आते क्या जाति क्या परजाति सभी लोग साहब के नाम से जानता थे । दूर दूर के गांवों में उनकी बड़ी इज्जत थी ।
हीरा साहब गरीबी मे पले बढे पढे थे । मीलों तक नंगे पांव पैदल चलकर पढने जाते थे । पैदल चल चलकर उनके तलवे की मोठी परत निकल जाती थी । कभी कभी तो उनके पांव से खून बहने लगता था पर वे स्कूल जाना बन्द नही किये थे । पढाई में बहुत होषियार थे । उनके जमाने में बिजली की पहुंच गांवों तक थी भी नही चिमनी ,डेबरी से पढाई होती थी । गरीबी इतनी थी की मिट्टी का तेल भी नही खरीद पाते थे । आवागमन के साधन भी न थे ,पगडण्डी या मेड़ो से होकर मीलों दूर स्कूल जाते थे । पूरे गांव में हीरा बाबू ही इकलौते थे जो अत्यधिक गरीब होने के बाद भी पढाई के प्रति समर्पित थे ।गरीबी,अषिक्षा,जातिवाद का खूब बोलबाला था । अंग्रेजी षासन में हीरा बाबू ने बारहवीं की परीक्षा पास कर नाम रोषन कर दिया था । गरीबी भी हीरा साहब का मनसुबा नही हिला पायी थी। बारहवी के बाद उन्होने पढाई छोड़ दिया और काम की तलाष में षहर चले गये । षहर में पुलिस अफसर की नौकरी मिल गयी ।अपनी मेहन,लगन,अनुषासन और पक्के इरादे की वजह से सफल भी रहे ।
हीरा साहब दो भाई थे । हीरा छोटे थे दूसरे भाई ठोरी बडे थे । दोनो भाईयों के प्यार को देखकर लोग होरी को लक्ष्मण कहते थे । हीरा साहब ने ठोरी को अपने से अलग नही समझा । वे ठोरी के बडे लड़को के षहर भेजकर पढाये और दूसरे को अपने साथ षहर पर अपने लड़को को उनकी हाल पर छोड़ दिये ।एक ही लड़की थी वह भीस्कूल का मुंह नही देख पायी थी । ठोरी के दोनो लड़के सफल हो गये अपने पांव पर खडा हो गये पर हीरा साहब के तीनों लड़के असफल रहे । लोग छींटाकषी करते कहते क्या हीरा साहब अपने बेटों को कुछ नही बना पाये तब वे कहते अरे भइया के लड़के क्या अपने से अलग है । है तो अपने ही, हमारे लड़केां ने ईमादारी से अपना कर्म नही किया तो फल कैसे मिलता । रही बात हमारे बेटों की हमने बड़ी कोषिष की वे नही आगे बढ पाये तो इसमें मेरा क्या दोश है । जब तक मेरी कमाई है तब तक ऐष करेगे जब खत्म हो जायेगी तब तो चेतेगे । जब आदमी पर पड़ती है तब चेतता ही है । हमारे बेटे भी चेतेगे । गांव पुर के लोग हीरा साहब को अपना आदर्ष मानते थे ।
हीरा साहब ने अपने जीवन में किसी का बुरा नही किया । भय्यपन के लिये बड़ा त्याग किया । संयुक्त परिवार की मर्यादा को टूटने नही दिये ।अपनी पत्नी और बच्चों को षहर नही ले गये । अपने भाई के नाम सबसे पहले जमीन खरीदा इसके बाद भाभी के नाम ।गांव के लोग ठोरी और हीरा को साथ देखकर कहते ये कलयुग के राम लक्ष्मण है । हीरा साहब के मरते ही सब कुछ बिखर गया । सब की निगाहें उनकी छोड़ी चल अचल सम्पति पर आ टिकी । पत्नी तो दस साल पहले ही दुनिया छोड़ चुकी थी । हीरा साहब झटपट में मरे थे ज्यादातर रकम बैक में थी जिसे प्राप्त करने के लिये लम्बी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना था । दसवें । घाट। पर हीरा साहब के छोड़े धन पर पूरे दिन हर कोई रायमष्विरा देने से नही चूक रहा था । लोग सिर मुड़वाते वक्त भी मुंह नही बन्द कर रहे थे । नाई का हाथ मषीन की तरह चल रहा था । इसके बाद भी भीड़ जीम हुई थी । लोग दाढी मूछ और सिर मुड़वाकर उपटन और सरसों की तेल लगाकर पोखर में छलांग लगा लेते ।षाम होेने को आ गयी पर सिर मुडवाने वाले कम नही हो रहे थे । तब गांव के दूसरे लोगों ने भी उस्तरा थामा तब जाकर तीनों नाईयों ने राहत महसूस किया । सूरज को ढलता हुआ देखकर एक बुजुर्ग बोले भइया पहले पिण्डदान की त्ैायारी कर लो । नही तो रात हो जायेगी । देखो बादल भी चढे आ रहे है । बरसात भी हो सकती है । बाल कटवाने वाले अब कम हो गये है । यही काम ये लोग पहले षुरू कर देते तो काफी पहले फुर्सत मिल गयी होती । खैर देर आये दुरूस्त आये । पिण्डदान की रस्म पूरी करने की अब व्यवस्था कर लो ।
नाई-हा दादा ठीक कह रहे हो । रूपचन्द कण्डा,चावल और एक हड़िया लाकर दो ।
रूपचन्द- काका सब तुम्हारे सामने रखा हुआ है ।कहां से लेने जाउूं ।
नाई-बुढौती में सब सठिया जाते है । मैं भी सठिया गया क्या ?
हुकुमचन्द ठिठोली करते हुए बोले तुम कहां से सठियाने लगे तुम तो बस ऐसे ही बाल काटते रहोगे ।
नाई निखारचन्द-नही भइया मुझे भी हीराभइया जैसे दुनिया के पार जाना होगा । अब नही बर्दाष्त होता कु्रन्दन । सुनो कैसी दर्दनाक चीखे आ रही है ।
हुकुमचन्द-मृत्युलोक से तो सभी को जाना है देर सबेर ।
नाई निपोरचन्द-अभी तो नही जा रहे हो काका । जरा हाथ जल्दी जल्दी चलाओ । देर हो गयी है । पेट में चूंह कूद रहे है । दाना भुजैना देख रहे हो तैयार है ।
नाई निखारचन्द-ठीक है भइया पिण्डदान तो हो जाने दो। ठोरी भइया पिण्डदान तुम करोगे या फुलेष्वर ।
ठोरी-फुलेष्वर करेगा । बड़ा बेटा तो वही है । हम कैसे करेगे?
नाई निखारचन्द-ठीक है फुलेष्वर इधर आ जाओ । अब तुम्हारा बाल काटूंगा क्योंकि पिण्डदान षुरू हो जाये बाकी आते रहेगे बाल कटवाते रहेगे । पिण्डदान का काम जल्दी षुरू करना होगा । निखारचन्द तनिक देर में फुलेष्वर के सिर के सारे बाल उसके आगे गिरा दिये । मूछ दाढी सब साफ हो गया । फलेष्वर दाढी मूछ और सिर मुड़वाकर उपटन और तेल लगा का पोखर में नहाकर आया और पिण्डदान की रस्म पूरी करने के लिये बैठ गया ।
निपोरचन्द ने आवाज लगायी अरे और कोई तो नही बचा है सिर उुड़वाने के लिये।
ठोरी का बड़ा बेटा कपिलेष्वर बोला काका अभी तो कई लोग है काका।
निपोरचन्द-बेटा तू तो इधर आ ।तेरा बाल काट दूं । बाद में दूसरों का काटूंगा ।
ठोरी बोले निपोचन्द- कपिलेष्वर की मूछ मत छिलना ।
कपिलेष्वर-क्यो बाबू ।
ठोरी-फुलेष्वर तो मुड़वा दिया तेरा मुड़वाना जरूरी नही है ।
निपोरचन्द- बेटवा कह रहा तो मुड़वा लेने दो क्या फर्क पड़ेगा दो दिन में तो फिर उग आयेगी ।घर की खेती है । कहां दूसरे के खे में उगाना है ।
ठोरी- नहीं मुड़ना ।
कपिलेष्वर-क्यों मना कर रहे हो बाबू ।
ठोरी-मैं तो जिन्दा हूं । तू मूछ मुड़वायेगा । अरे जिसका बाप मरता है वही सिर,दाढी और मूछ मुड़वाता है ।
कपिलेष्वर निपोरचन्द से बोला मूछ मूड़ दो काका । मेरी मूछ मुड़वाने से पिताजी नही मरेगे । चाचा ने तो पिताजी से ज्याद हम लोगों के लिये किया है । पिताजी तुमने हमारे लिये क्या किया है ? सब तो चाचा का किया हुआ है । चाचा चाची ने पाला पोशा पढाया लिखाया पांव पर खड़ा होने लायक बनाया । तुमने तो कुछ भी नही किया है चाचा की दी हुई धोती की खूंट पकड़कर चैधिरायी करते रहे । देवता समान चाचा की मौत पर मूछ तक नही बनवाने दे रहे हो । असल में इसके चाचा हकदार है बाबू तुम नही । घाट पर जमा लोग कपिलेष्वर की हां में हां मिला रहे थे ।
ठोरी गुस्से में लाल हो गये और बोले- मूछ नही देना बस ।
ठोरी की बात हीरसाहब के समधी द्वारिकाप्रसाद को बर्दाष्त नही हुई । वे उठ खडे़ हुए और ठोरी के सामने जा खड़े हुए और बोले क्या भइया तनिक सी बात का बतंगड़ बना रहे हो । हीरा भइया का घाट है जो दसी दिन पहले तक तुम्हारे लिये लक्ष्मण थे । क्या नही तुम्हारे लिये किये । सब तो उनका ही बनाया हुआ है तुमने क्या किया है अपने बच्चों के लिये ,परिवार के लिये? सब कुछ तो हीरासाहब का किया हुआ है। क्यों भाई साहब की नेकी पर मुट्ठी भर आग डाल रहे हो ? ये कैसा परायन ठोरी भइया हीरा भईया के मरते ही ?

 


डां.नन्दलाल भारती

 

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