Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पिसुआ

 

भूमिहीन खेतिहर मजदूर पिसुआ पोखर में डूबकर मर गया । जानकर बहुत दुख हुआ । वही पिसुआ जो कहता था देखो केषव बाबू मैं भी एक आदमी हूं पर जमीदार जिसके लिये जिसके खेत से हवेली तक दिन रात एक करता हूं सेर भर मजदूरी पर । वही जमींदार मेरे साथ जानवर से भी बुरा व्यवहार करते है । कुत्ते के मुंह मारेे बर्तन में खा लेते हैं पर मेरा छुआ हुआ अपवित्र हो जाता है । मेरी परछाई तक से परहेज होता है । जिल्लतें झेलकर भी टिका हूं । जाउूं तो जाउूं कहां केषव बाबू ।सारी खोट व्यवस्था में है। तीन बेटियां एक बेटे का परिवार है,नात हित है । दूसरी कोई आढत नही है । मेहनत मजदूरी के भरोसे गृहस्थी की गाड़ी को धक्का दे रहा हूं । बेटा पढ लिख जायेगा तो अपने भी जीवन का सांध्य चैन से बित जायेगा । इसी उम्मीद में जी रहा हूं केषव बाबू ।
केषव- आपकी उपासना जरूरी सफल होगी । भगावान पर यकीन रखो बाबा ।
पिसुआ- हां केषव बाबू इसी उम्मीद पर तो जिन्दा हूं ।
केषव-ईष्वर जरूर मदद करेगा बाबा ।
पिसुआ बहुत मेहनती खेतिहर भूमिहीन था । जमींदार की नींद नही खुलती थी उससे पहले हाजिर हो जाता था दरवाजे पर । गन्ने की पेराई के समय में तो पिसुआ के बच्चे तो उसे देख ही नही पाते थे । आंधी रात को घर पहुंचता था और भोर मे काम पर पहुंच जाता था । बदले में वही दिन भर की दो सेर अनाज की मजदूरी ,दोपहर में थोड़ा सा चबैना और लोटा भर रस और गुड़ बन जाने पर कड़ाह का धोवन मिलता था। धान की रोपाई के सीजन में तो पिसुआ की काया कोढ़ियो जैसी हो जाती थी । गेहूं की बुवाई के वक्त तो पैर का तलवा सांप की केचुली की भांति मोटी परत छोड़ देता था हल के पीछे चलचलकर । खैर हर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की यही दास्तान है । उन्हे आंसू में रोटी गीला करना पड़ता है,लाख तकलीफें भोगना पड़ता है । वह कहता बाबू हमारी ही नही पूरी बस्ती के खेतिहर मजदूरों का बुरा हाल है । रोटी कपड़ा और मकान के लिये तरस रहे हैं । हम आजाद देष के गुलाम है । समाज में हमारी स्थिति कुत्ते बिल्ली से भी गयी गुजरी है । बाबू समाज से उपेक्षित, जाति से छोटा भूमिहीन खेतिहर मजदूर जो ठहरा । वह आंसूओ से भरी आंखों में उम्मीदे लिये कहता केषव बाबू हमारी मेहनत एक दिन जरूर रंग लायेगी । अरमानों के सपने पिसुआ के सुनहरे जरूर थे पर किस्मत तो कैद थी जमींदार की चैखट पर व्यवस्था की खोट की वजह से। वह मुसीबतों की दरिया में डूबा हुआ भी खुष रहता था षायद वह अपनी पीड़ा बच्चों से दूर रखना चाहता था । वह कहता केषव बाबू कब बचपन से बूढा हो गया पता ही नही चला जमींदार की गुलामी करते करते ।
पिसुआ के हाथ हल के मूठ पर ऐसे सध गये थे कि वह हल जोतते जोतते सो तक जाता था मजाल कि बैलों को तनिक खरोच तक लग जाये । पिसुआ को सुबह जमींदार के घर से एक लोटा रस और मुट्ठी भर चबैना मिलता था वह भी लेने के लिये पिसुआ के घर से कोई जाता था । ज्यादातर रस चबाने लेने जाने वालों को भी जमीदार दूसरे कामों में लगा लेते थे इसके बदले मजदूरी भी नही मिलती थी। रस चबैना की इन्तजार में बेचारे मजदूरों को षाम तक हो जाती थी कभी कभी । बहुत षोशण करते थे जमीदार लोग ,मानवता तो उनमें तनिक भी न थी । मजदूरों से जानवरों सरीखे काम लेेते थे बदले में पेट पालने भर की मजदूरी नही देते थे । अभावांे में जीने को मजबूर किये रहते थे उपर से उत्पीड़ित भी करना अपनी षान समझते थे । जब कभी जमींदार की दुत्कार और मुसीबते गम का भारी बोझ बन जाती तो वह गम को भुलाने के लिये खेत में नाचना षुरू कर देता । कुछ ही देर में उसकी नांच देखने के लिये भीड़ लग जाती । राहगीर तक रूक जाते थे । काम की खेाटी कहकर इसके लिये भी जमींदार झारख्सण्डे बाबू अपषब्द तक बक जाते थे पर पिसुआ इतना गमखोर था कि बुरा नही मानता था । वह कहता जल में रहकर मगरमच्छ से कैसी दुष्मनी ?
पिसुआ जितना मेहनती था उतना ईमानदार भी और बड़ों की बात को षिद्दत से स्वीकार कर लेता था चाहे उसको हानि ही क्यो ना हो जाये । उसकी नेक नियति का फायदा जमीदारन खूब उठाती थी । बेचारे गरीब मजबूर की मजदूरी कम कर देती थी । पिसुआ कहता मालिकीन सात दिन की मजूदरी बाकी है तो जमीदारन कहती नही रे पिसुआ पांच ही दिन की । इसके पहले कितने दिन की ले गया था कुछ मालूम है । बेचारे पिसुआ को ही झूठा करार कर दिया जाता । बेचारा आंखों में आंसू लिये मान जाता । पत्थर दिलों का दिल नही पसीजता । कुछ महीने पहले पिसुआ से मुलाकात हुई थी । मैने पूछा बाबा आज काम पर नही गये ?
पिसुआ-केषव बाबू अब काम नही होता आंख ठेहुना सबने जबाब दे दिया । मजबूर होकर घर बैठा मक्खी मार रहा हूं ।
केषव-बाबा ऐसा क्यो कह रहे हो ।
पिसुआ-क्या कहूं बाबा । हाथ पांव चलता था तो सेर भर कमा कर लाता था । बचपन से अब तक जमीदार झारखण्डे बाबू का गोबर फेंका । देखो रोटी के लाले पडे़ है । जिन्दगी चैन से कट जाती । अगर सरकारी नौकरी में होता दस साल पहले रिटायर हुआ होता लाखो की गड्डियां लेकर उपर से पेषन भी मिलती । जमीदार लोग खून को पसीना बनवा लेते है सेर भर मजदूरी देने में भी आंख निकल जाती है ।
केषव-बाबा तुम्हारी बात में सच्चाई तो है ।
पिसुआ- काम तो नही छोडता पर ताकत ने साथ छोड़ दिया लाचार को क्या विचार बैठ गये दरवाजे पर । जमीदार की हवेली भारी बोझा लेकर गिर गया था देखो ये घाव । ये घाव है कि ठीक ही नही हो रही है । मवाद बहता रहता है । विपत्ति का बोझ सिर पर आ पडा है केषव बाबू ।
केषव-कैसी विपत्ति बाबा?
पिसुआ- बाबू तुम नहीं समझोगे षहर में रहते हो ना ।
केषव-समझता हूं बाबा । ऐसी बात नही है । इसी गांव में तो पैदा हुआ हूं सब जानता हूं । जातिवाद,अत्याचार,षोशण आदि से अच्छी तरह परिचित हूं । बाबा बताओं ना कैसी विपत्ति ?
पिसुआ-बेटवा को पेट काटकर पढाया पर नौकरी नही मिली । जहां जाता घुस मांगा जाता । मैं ठहरा खेतिहर भूमिहीन मजदूर कहां से देता घुस । मेरा सपना बिखर गया बाबू ।
केषव- हां बाबा चहूंओर भ्रश्टाचार की आग लगी हुई है । इसीलिये तो कमजोर तबके के लडके तरक्की नही कर पा रहे है । उनकी जरूरते नही पूरी हो पा रही है,स्कूल कालेज की फीस तक नही दे पा रहे हैं,पेट में भूख आंख में सपने सजाये परिस्थितियों से लड़ रहे हैं । इंसानियत विरोधी आगे बढने नही दे रहे है ।
पिसुआ- केषवबाबू कहते है हमारी बिरादरी की नौकरी के लिये आरक्षण है । कहां आरक्षण है। इस बस्ती में कोई ऐसा लड़का नही है जिसे सरकारी नौकरी मिली हूं । सरकारी आरक्षण तो हमे नहीं खुषहाल बना पाया । अरे आरक्षण तो उनका है जो पोथी लेकर घूमते है । अच्छी कमाई करते है । लोग सलाम भी ठोकते है । आरक्षण तो उनका है जो जमीन पर कब्जा कर बैठे है, व्यापार पर कब्जा कर बैठे है हमारे जैसे कमजोर के लिये तो कोई रास्ता ही नही बचा है बस खुद का हाड़ थूरो जीवन भर । यदि ये जाति व्यवस्था वाला आरक्षण खत्म हो जाता तो हम खुषहाल हो जाते । इससे समाज कई धड़ों में बंट गया है। सब एक हो जाते । सबमें बराबरी का भाव और सद्भावना का संचार होता । वर्णव्यवस्था में तो हमारे जैसा आदमी ,आदमी होकर भी आदमी नही रहा है । ये आरक्षण खत्म होना चाहिये । बाबू हम जीवन भर हल जोतते रहे दस बीसा जमीन के मालिक नही बन पाये । जिसने कभी खेत में पैर ही नही रखा वही खेत के मालिक है । हम अनाज पैदा करते है हमारे बच्चे पेट में भूख लेकर सोते है । हम मकान बनाते है हमारे बच्चेंा को धूप बरसात से बचने का कोई पुख्ता इन्तजाम नही । हम तो गुलाम होकर रह गये है । जल जमीन और जंगल पर कब्जा करके दंबग समाज हमें तो कण्डे से आसंू पोछने को बेबस कर दिया है ।
केषवबाबू- हां बाबा दंबग समाज ने कमजोर वर्ग के साथ अन्याय तो किया है ।
पिसुआ- अन्याय तो किया ही है । हमारा इतिहास खत्म कर गुलामी के रंग में रंग दिया है।
केषव- बाबा तुम्हारी बात में दम तो है ।
पिसुआ- बाबू मेरा बेटवा बारहवीं पास है । बी.ए. की पढाई तंगी की वजह से पूरी नही हो पायी । षहर में ईट गारा कर रहा है । दिन रात की मेहनत मजदूरी से दो हजार रूपया भेजा था वह भी झाारखण्डे बाबू के कर्जे मे चला गया । ना जाने कौन सा कर्जा है । कब हमने लिये कोई अता पता नही सौ रूपया के बदले हजार लिखकर अंगूठा लगवा लिये । टयूबवेल के पानी के नाम पर हजारो का कर्जा निकल रहा है । दवाई के नाम पर हजारों का कर्जा निकल रहा है । झारखण्डे बाबू कह रहे थे । अरे पिसुआ अपने बेटे से कह दे मेरा काम थाम ले सब कर्जा माफ कर दंूगा । बाबू तुम्ही बताओ मेरा इतना प्ढा लिखा बेटा बंधुवा मजदूरी करेगा । मैं तो कभी नहीं करने दूंगा । एक दिन रात में षहर भगा दिया बेटवा को । बेटवा की कमाई झारखण्डे बाबू के फर्जी कर्जे में जा रही है । कहां गुहार करें मुझ गरीब की कोई सुनने वाला नही है ।बाबू पहले भी बहुत दुख झेला आज भी झेल रहा हूं । बस थोड़ा सकून है कि बेटवा को जमीदार के चक्रव्यूह में फंसने नही दिया है । साल दो साल में फर्जी कर्ज भी पट जायेगा । खैर इसका फल झारखण्डे बाबू को जरूर मिलेगा । गरीबेां की आहे बेकार नही जाती ।
केषव- बाबा सचमुच जमीदारी के दंष ने खेतिहर मजूदरों के जीवन को नरक बना दिया है ।
पिसुआ- बाबू, झारखण्डे बाबू एक मरती हुई बछिया दिये बोले ले जा पिसुआ जीला खिला । दो पैसा देगी । बछिया तो दो चार दिन में जमींदार के दरवाजे पर मर जाती । मरा जानवर फेकने के डर से बछिया को झारखण्डे बाबू मेरे गले में बांध दिये । मैं कंधे पर अपने घर लाया था । कोई मोल भाव नही किया मैं तो समझा फोकट में मिल रही है, मेरी मति मारी गयी थी । भगवान का चमत्कार ही कहो दो चार दिन में बछिया चलने फिरने लगी जबकि जमीदार के दरवाजे पर अब मरी की तब मरी वाली हाल थी । बड़ी जतन से बछिया को पाला बकरी का दूध पीलाकर । दस -पन्द्रह दिन के बाद घास भूसा भी खाने लगी थी । बछिया बड़ी हुई गाभिन हुई । गाभिन बछिया को देखकर झारखण्डे बाबू के अन्दर का षैतान जाग गया । वे बोले पिसुआ मैने तुमको फोकट में गाय तो दिया नही है गाय की कीमत दो हजार है । एक हजार मुझे दे दे गाय खूंटे पर बांध ले । नही तो हजार रूपये मुझसे ले ले गाय मेरे खूंटे पर बांध दे । गाय झारखण्डे बाबू के खूटे पर बाध देता तो हजार रूपये भी नही मिलते गाय भी चली जाती । दो बीसा खेत था वह भी गाय के लिये गिरवी रख दिया । वही हुआ न गाय मिली न रूपया । गाय झाारखण्डे बाबू हांक ले गये । रूपया कर्जे में काट लिये । बाबू मुझे तो बरबाद कर दिया जमींदार झारखण्डे बाबू ने । दिल के अरमान झारखण्डे बाबू ने आंसूओं में बहा दिये मेरे ।
केषव- हां बाबा कमजोर की पीड़ा कौन समझता है आज के इस लूटखसोट के जमाने में । जमीदार तो खून चूसने के लिये बदनाम ही है और भी लोग कम नही ।
पिसुआ-हां बाबू तुमको भी सच्चाई का पता चलने लगा है । केषव बाबू फुर्सत में हो क्या ?
केषव-क्यों बाबा कुछ काम है हमारे लायक क्या ?
पिसुआ-वक्त तो खोटा नही कर रहा हूं ।
केषव-नहीं बाबा । ऐसा क्यों सोच रहे हैं । बाबा आप अपनी पीड़ा किससे कहेगे अपनों से ही ना । मन का दर्द बांटने से मन हल्का होता है ।
पिसुआ-हां बाबू पर आज के जमाने में सुनता कौन है । पीड़ितो की बात सुनी गयी होता तो देष में जातिवाद,गरीबी,भूमिहीनता का ताण्डव होता ? हम सामाजिक बुराईयों से अभिषापित होते ? हमारे साथ अन्याय होता ? नही होता बाबू सब ओर समानता होती । षोशित पीड़ित समाज भी सम्मानजनक स्थिति में बसर करता पर यहां तो हर ओर भेद का ताण्डव है ।
केषव-हां बाबा ठीक कह रहे हो ।
पिसुआ- केषव बाबू ये जमीदार लोग हम वंचितों को गुलाम आज भी समझते है । भले ही देष आजाद हो गया है । बाबू आज जो मेरी हाल है उसके लिये पुराना आरक्षण जिम्मेदार है ।
केषव- वो कैसे बाबा ?
पिसुआ- बाबू हम खेती करते है । हम भूमिहीन है । आदमी होकर आदमी के बराबर सामाजिक समानता प्राप्त नही है । जमीन पर तो हम हल जोतने वाला का हक बनता है बाबू देष में हकबन्दी लागू होनी चाहिये ताकि षोशित समाज सम्मान के साथ जी सके ।
जाति आधारित पुरानी व्यवस्था ने सब कुछ छिन कर हमें कैदी बना दिया है ।हमारी दासता इसी व्यवस्था की देन है ।जब तक षरीर में जान था झारखण्डे बाबू ने निचोड़ा जब षरीर काम करने में असमर्थता जता दी तो कर्ज का बोझ सिर पर लादकर लात मार दिया । बाबू यदि सरकारी नौकरी में होता या सरकारी संरक्षण प्राप्त होता तो आज मेरी स्थिति ऐसी नहीं होती । केषवबाबू सिर पर विपत्ति आ पड़ी है ना जाने कब कटेगी ?
केषव-हां बाबू बहुत बड़ी विपत्ति है । इस विपत्ति का इलाज राजनीति से ही सम्भव है पर ईमानदारी के साथ पहल हो तब । सामाजिक समानता का अधिकार मिले, भूमि पर मालिकाना हक मिले । षोशित समुदाय के बच्चों की षिक्षा दीक्षा का पूरा भार सरकार वहन करे । तभी वंचितो का उध्दार सम्भव है ।
पिसुआ-बाबू विपत्तियों से घबराकर बुढिया पागल हो गसी है । जमींदार का फर्जी कर्ज कैसे भरा जायेगा ? बेटवा नीलाम हो जायेगा यही रट लगाये रहती है । पागलपन के दौर में खटिया से उठकर कभी कभी भाग भी जाती है । बुढिया की देखरेख करनी पड़ती है । उसके कुछ सूझता नही । जमीदार का अत्याचार पागल बना दिया है । बाबू जिन्दगी नरक होकर रह गयी है ।
केषव- बाबू बेटवा पतोहू सेवा सुश्रुशा तो कर रहे है ना ?
पिसुआ-बेटा,बहू तो बहुत ख्याल रखते है । सारा दारोमदार तो बेटवा और बहू के उपर है । बेटवा षहर में ईंटं गारा करके सौ पच्चास का मनिआर्डर भेजता रहता है । बहू हमारी और बुढिया की चाकरी करती ही है । मेहनत मजदूरी से भी नही चूकती । टाइम से रोटी दे देती है । भले ही भूखी रहे । बाबू हमे सबसे ज्यादा दुख जातिवाद की महामारी से है । हमारी सारी मुसीबतों की जड़ भेदभाव वाली पुरानी व्यवस्था है । खत्म हो जाती तोे हमारे जैसे अभागों का उध्दार हो जाता ।भेदभाव की मुट्ठी भर आग में सुलग सुलग कर मरने से बच जाते ।
केषव-ठीक कह रहे हो । जातिवाद ने तो आदमी को ऐसे बांट रखा है कि हर वर्ग का आदमी षोशित वर्ग का खून चूसने के लिये उतावला है और खुद दूसरे से श्रेश्ठ होने का भ्रम पाल रखा है । अरे आदमी तो आदमी होता है क्या छोटा क्या बड़ा ?
पिसुआ- सच कह रहे हो । केषव बाबू अभी कब तक रहोगे ?
केषव- चार दिन और हूं बाबा ।
पिसुआ-बाबू मै जाउूं ।
केषव-कोई जरूरी काम याद आ गया क्या बाबा ?
पिुसआ-क्या काम करूंगा । काम करने लायक कहां बचा हूं । अब तो अपना षरीर ढो लूं बड़ी बात होगी । बाबू बुढिया का डर लगा रहता है । दीवाल पर चढकर बाहर कूद जाती है । घर की दीवाल छोटी है ना । एक बार तो कूल्हा ही सकर गया था । बन्द करके रखना पड़ता है। दरवाजा बाहर से बन्द करके आया हूं । पोता-पोती स्कूल गये है । पतोहू काम पर गयी है । बाबू अब चलता हूं । बुढिया कहीं चली गयी तो तड़प तड़प कर मर जायेगी । मुझे डर लगा रहा है ।
केषव- चलो में भी दादी को देख लेता हूं ।
पिसुआ-बाबू किसी को नही पहचानती ।बुरी बुरी गाली देती है ।
केषव-बाबा दादी होष में गाली तो नही देती है ना । बेचारी की दिमागी स्थिति ठीक नही है । उसका क्या दोश ?
पिुसआ-ठीक है बाबू चलो ।
केषव पिुसआ के साथ उसके घर पहुंचे । पिसुआ बोेला बाबू ठहरो । सुनो बुढिया कुछ पटक रही है । केषव बाबू वापस जाओ । मैं दरवाजा खोलकर देखता हूं । तुमको देखकर गाली देगी ।
केषव- कोई बात नही बाबा गाली सुन लूंगा । मुझे बुरा नही लगेगा । पागलपन के दौरे की वजह से दादी गाली बकती है ना । जब ठीक थी तब तो गुड़-पानी लेकर आती थी। बाबा सब समय का दोश है । दादी का नही ।
पिसुआ दरवाजा खोला बुढिया कटोरा उसके सामने पटकती हुई बोली क्यों मुझे मारना चाहता है ना ले दबा दे गला । झारखण्डे बाबू ने जोख की तरह खून चूस डाला तू गला दबाकर खत्म कर दे । जीने से क्या फायदा । चिल्ला चिल्लाकर बुढिया कोने में बैठकर रोने लगी । तब पिसुआ बोला देख लो बाबू बुढिया का ऐसा हाल हो गया है । केषव बाबू प्रभु की इच्छा होगी तो फिर मुलाकात होगी अब जाओ ।
वही पिुसआ मर गया । आंख से दिखाई देना बिल्कुल कम हो गया था । घुठने भी जबाब दे गये थे । भोर में मैदान के लिये लाठी के सहारे निकला था पर भ्रमबस पोखर की ओर चला गया । पानी को जमीन समझकर पैर आगे बढाया और चला गया हाथी के डूबने लायक पानी में । दो दिन की खोजबीन के बाद उसकी लाष मिली थी । आंख कान और षरीर के कुछ हिस्से तो मछलियों ने चट कर दिया था । जीवन भर बहिश्कार तिरश्कार,षोशण की लाख मुसीबते झेलने के बाद आषावादी पिसुआ आखिरकार दुनिया से दर्दनाक मुक्ति पा गया मुर्दाखोर समाज और सरकार के सामने कई ज्वलन्त सवाल छोड़कर।

 

 

 

डां.नन्दलाल भारती

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