Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पिता

 
पिता
हाड़ निचोड़ता,तन पर टंगे वस्त्र
पांव में कई सुराखों वाली पनहीं पहने
जरुरतों से जूझते,
पसीने से उपजे खनकते सिक्के को
सन्तानों पर मुक्त हस्त लूटाते
अच्छे लगते हैं.........
बदले युग में एटीएम भर रह गए
सोचते हैं सुरक्षित हो रहा कल
उत्साहित रीन-कर्ज तक कि
फिक्र नहीं
जीवन के सांझ की रकम
भर ही नहीं खुद को गिरवी
रख देता है,
सन्तान के भविष्य को
फलदायी बनाने के लिए पिता ........
ज्यो ज्यो नजदीक पहुंचने लगता है
जीवन के अन्त की ओर
वही खून के सगे दूर होने लगते है
सिर अपयश, अपमान, सौतेलेपन का
सुलगता छेद करने लगते हैं
हृदय के बीचों-बीच बड़ी निर्लज्जता से
मर जाता है जीते जी
बचा हुआ जीवन हो जाता है
तेजाब के दरिया का जीवन
अकेला-असहाय हो जाते हैं पिता.....
तेजाब के दरिया का जीवन
मरते सपने का बोझ लिए
दधीचि की भांति न्यौछावर करने को तत्पर
बिना किसी  लोभ के सन्तानों की
उन्नति के लिए हाथ फैलाये
बहिष्कृत,तिरस्कृत,तेजाब की दरिया का
जीवन बीता देता है पिता
वाह रे सन्तानें उन्हें खबर ही नहीं लगती
एक दिन सर्वस्व छोड़ कर
चल पड़ता है अन्तिम यात्रा पर
तब आती है याद .......तब ना होता
ना सुन पाता फरियाद पिता ...।
डां नन्द लाल भारती
20/07/2019

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