नाज पर आज अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है ,
मोह भी क्या बला है अपनो की ,
अपनी जहा में यारो ,
गले में सांस रुकने लगा है।
ना जाने कौन सा ,
इम्तहान अभी बाकी है
संवारने की तमन्ना में ,
टूटते-बिखरते -जुड़ते रहा ,
उम्र भर
ना जाने क्यों अपनी जहां में ,
रंज छाने लगा है।
हादशों की गवाह उम्र अपनी
नए -पुराने दर्द पोर-पोर चटकाते ,
बदले वक्त में एक-एक घाव ,
भारी बहुत भारी लगाने लगा है।
ये खुदा बख्श दे अब कोई ताबीज ,
अपनी जहाँ का दर्द ,
सताने लगा है ,
नाज पर अपने ,
अपनी जहां में रंज छाने लगा है।
डॉ नन्द लाल भारती
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