सद्भावना के मंगल में ,
विरान पसारने लगा है ,
स्नेह का बीज ,
दुश्मनी की धूप में ,
सूखने लगा है ,
कही अभाव ,
कही खजाना तंग ,
लग रहा है ,
सब कुछ आज ,
बाजार में बिकने लगा है ,
व्यापार-भ्रष्ट्राचार की खुमारी में ,
तन का पुर्जा -पुर्जा ,
तक लूटने लगा है।
डॉ नन्द लाल भारती
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