हाशिये का आदमी अदना
आँख खुलती है जब
तब से तलाश होती है
आस होती है
सपना पूरा होने का
बहाता है श्रम झराझर
निरंतर
एक अदद इंतजार होती है
उड़ान भरने की
खड़ी दीवारें रोक देती है
उड़ाने
हाशिये का आदमी
ताकता है दरवाजे से अपने
पूरे हो उसके भी सपने
ना जाने क्यूँ
मिलते है हर दरवाजे बन्द
उसके लिये
अदना हो जाता है बेआस
नहीं मानता निचोड़ता रहता है
बोता रहता है सपने
बार बार मरते सपनों के बाद भी
ना जाने क्यूँ
मन नहीं मानता उसका
लगता है उसे
खुलेंगे बंद दरवाजे
उसके लिए भी एक दिन
फिर क्या
आस की सांस पीकर वह
निकल पड़ता है
हर दिन की तरह
बुनते हुए सपने।।।।।।।
डॉ नन्द लाल भारती
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