जख्म पर जख्म
अपनी ही जहां में
साथ चलने वाला ना मिला।
रोटी का बंदोबस्त ,
सर की छांव का इंतजाम ,
पसीने के भरोसे ,
विभाजित जहां में
सम्मान ना मिला।
सर्वसमानता के नारे
कान तो गुदगुदाते ,
जख्म के अलावा
कुछ ना मिला ,
भ्रमवश माना ,
तकदीर के खिल गए फूल ,
हकीकत में ,
टूटा हुआ आईना मिला।
घाव और गहरा हो गया
जब आदमी के चहरे पर
मुखौटा ही मुखौटा मिला।
कथनी और करनी को ,
खंगाला जब ,
आदमियत का लहूलुहान ,
चेहरा मिला।
आँखों में सपने ,
दिल घायल मगर ,
अपनो की महफ़िल में ,
मीठा जहर मिला।
बड़ी मन्नते थी ,
चखें आज़ादी का स्वाद असली ,
बिखर गए उम्मीदे ,
मानवीय एकता को ना ,
अवसर मिला।
छाएगी समता ,
चौखट -चौखट होगी सम्पन्नता
सम्भावना का है ,
फूल खिला…………
डॉ नन्द लाल भारती
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