सोचता हूँ बार-बार
विहस पड़े मेरा भी मन एक बार।
व्यवधान खड़ा हो जाता है कोई ,
उमंगें रौंद देती है ,
अड़चने कोई न कोई।
चहुओर मौत के सामान ,
बिकने लगे है ,
रोजमर्रा की चीजो में ,
जहर मिलने लगे है।
महंगाई है भूख है ,
जाति भेद है ,हवा प्रदूषित है ,
भागदौड़ भय,जल भी दूषित है।
शासन है प्रशासन है ,
फिर भी रिश्वतखोरी है ,
समता-समपन्नता के वादे तो ,
बस मुंहजोरी है।
न्याय मंदिर है ,
दंड के विधान है ,
फिर भी अत्याचार है।
बुध्द -भावे की ललकार ,
फिर भी अनाचार है।
चहुओर मुश्किलो का घेरा ,
कहाँ से आये मुस्कान ,
मोह-मद का बाज़ार हावी ,
सब है परेशान।
खुश रहने के उपाय ,
विफल हो जाते है ,
मुखौटाधारी मतलब का ,
दरिया पार कर जाते है।
सह मई भी सोचता हूँ ,
बार-बार
विहास पड़े मेरा भी मन ,
एक बार…………।
डॉ नन्द लाल भारती
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