Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सोने की चिड़िया

 

यकीन तो पूरा है
हाशिये के आदमी जो दमित है
‘ाोषण अत्याचार उत्पीड़न के शिकार है
छाती पर आज भी भारी बोझ है
जातिवाद छुआछूत का
धर्म के ठेकेदार भी रह-रह कर
फतवा जारी करते रहते है
उत्पीड़ितों के प्रवेश से मंदिर
अपवित्र हो जाएगा
नतीजन मंदिर प्रवेश पर अपमान
मंदिर जो खड़ा है इन्हीं का श्रम झरा है
ये है कि मानते है नहीं
धर्म की विसात पर जगह नहीं
ना जाने क्यों कैद की रखा है
धर्म के ठेकेदारो ने
‘ाायद गिनती बढाने के लिये
धर्म के ठेकेदार अपना मानते भी नहीं
न जाने किस दण्ड की सजा है
हाशिये के लोगों के लिये
छाती में ठोंका छूआछूत-भेदभाव का खूंटा
दर्द देता रहता है जो पल-प्रतिपल
धर्म के आवरण में लिपटा रहस्य है
गुलाम बनाये रखने का
वक्त गवाह है जो आज हाशिये के लोग है
उनके पुरखों की सत्ता में
यही देश जहां पग -पग पर छल है
जातिभेद है नफरत है
वही सोने की चिडिया था एक दिन
सच है वक्त ने बख्‘ाा था विश्वव्यापी
सत्ता-सोहरत तभी तो था
देश सोने की चिड़िया
पुरखों को आता था बिना किसी भेदभाव के साथ-साथ जीने और धरती को
संवार सम्भालकर रखने का गुर
सोने कि चिड़िया की थी गूंज
कायनात के आरपार
आत्मघाती क्रूर निगाहों ने डंस लिया
घात लगााकर
जड़ दिया धर्म की आड़ में
जातिवाद छूआछूत का जहर
हाशियें के लोगों की नसीब में
अपनी जहां का आदमी हो गया
भूमिहीन दरिद्र अछूत
ये कैसी सत्ता कैसा धर्म
कैसे आदमी विरोधी देवदूत
किसी देवदूत ने नहीं किया न्याय
हाशिये के आदमी के साथ
राम के राज में भी नहीं हुआ न्याय
राम ने तो कर दिया
महर्षि ‘ाम्भुख का सिर धड़ से अलग
अपनी जहां के लोग
दर्द से कराहते हवा पीते जी रहे है बस
अच्छे दिन की इन्तजार में
वह दिन भी आया लोकतान्त्रिक आजादी मिली
देश को अपना धर्मग्रथ संविधान मिला
हाशियें के आदमी को मिली अपार खुशी
पर क्या यहां भी चक्रव्यूह
काश बैठ जाते एक साथ अपनी जहां के लोग
कट जाता सदियों का अपना भी वनवास
पूरी हो जाती मुरादे
संवर जाती अपनी जहां
वैसे ही जैसे थी कभी सोने की चिड़िया

 


डां नन्दलाल भारती

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