स्वार्थ की धूप में
परमार्थ की अब
कद्र नहीं
टूट जाते हैं कई
अपने को संवारने मे
भूलकर खुद को
मतलब की छंटी
बदरी
तन गई आंखों पर
परदे की सदरी
ना आह ना कराह
एहसान ना एहसास
स्वार्थ की धूप मे
रिश्ते सेंके जाते
चली तनिक
बसन्त की बदरी
सगे वही
लहू के रिश्ते
कभी होते थे
अमृत जैसे
आवाजों पर जिनकी
झरती थी रसधार जिनकी
क्या हुआ कैसा
उठा बवंडर
बसन्त के झोंके में
बहके ऐसे
ना रही
रिश्ते की कद्र जैसे
बाप माता तात तैया
बहिन भैया
मदमस्त झूठे झूमते
सचे बिन पानी
मीन जैसे तरसते
रिश्ता कांपता थर्राथर
अंखियां झरती झराझर
स्वार्थ की रीति निर्दयी
नि स्वार्थ मरता
रिश्ते की आन
चहकता रहे शान
एहसानफरोख्त
रिश्ते के सौदागर
मसीहाओं को तौलते
अपने तराजू पर
स्वार्थ के बटखरे से
नजरों मे वहीं सिकंदर
त्याग तपस्या सदाचार
सदभावना की नहीं कदर
याद रखना स्वार्थ की
जहां सजाने वालों
सजेगी जहां तो बस
अपनेपन की सुगंध से
थाम लो रिश्ते
टूट गए रिश्ते गर
रह जाएंगे पशुवत
थाम अंगुली
सौगंध तुम्हें......।।
डां नन्द लाल भारती
20/11/2021
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