गोरख भूमिहीन खेतिहर मजदूर था। गोरख जब होष सम्भाला था तो वह खुद को जमींदार टेकचन्द के दरवाजे पर बधुंवा मजदूर पाया था।जमींदार के बच्चों को स्कूल जाते हुए देखता वह म नही मन रोता कहता काष हम उच्च कुल में पैदा हुए होते तो ये दुर्दिन नही देखना पड़ता। गोरख म नही मन कसम खाया कि मैं तो स्कूल नही जा पाया पर अपने बेटे को स्कूल जरूर भेजूंगा।मेरा बेटा गांव का सबसे अधिक पढा लिखा अफसर होगा।गोरख सपनों में जीना षुरू कर दिया। बचपन से कब जमींदार की चाकरी करते बूढा होगया पता ही नही चला। गोरख अपने वादे का पक्का था। दूर और महंगे स्कूल में तो उसे बेटे को भेजकर पढाने की औकात नही थी। उसने अपने बेटे प्रबुद्ध का गांव के पास के हरिजन प्राइमरी पाठषाला में दाखिला करवा दिया पर ये दाखिला जमींदार परिवार को हजम नही हो रहा था।
प्रबुद्ध भले ही मजदूरी बाप का बेटा था पर बुद्धिमान था,स्कूल में पहली कक्षा से अव्वल आने लगा था। कहते हैं ना पूत के पांव पालने में ही दिख जाते है।वही हुआ प्रबुद्ध पांचवी कक्षा पास कर गया।पांचवी तक तो कोई ष्ुाल्क नही देना था। छठवी कक्षा में दाखिले के लिये भी पैसा लगने वाला था,और हर महीने आठ आना फीस के भी देना था। अब गोरख के सपने बिखरने लगे थे परन्तु गोरख की अर्धांगिनी सेविका हौषला बढ़ाते हुए बोली प्रबुद्ध के बापू चिन्ता मत करो। बेटवा का दाखिला हो जायेगा। सेविका ने मुर्गा बेचकर दाखिले और स्कूल के फीस का इन्तजाम कर लिया। किताबे तो दूर के रिष्तेदार से मंगनी आ गयी। कापी कलम और जरूरी चीजों का इन्तजाम पेट की कटौती कर हो गया । प्रबुद्ध का दाखिला जूनियर हाई स्कूल में हो गया,वह स्कूल जाने लगा।
गोरख और सेविका के लिये बेटे का स्कूल जाना बहुत महंगा पड़ने लगा,कमाई का दूसरा कोई जरिया था,मजदूरी में कमाये गये अनाज से घर गृहस्थी के साथ बेटे की पढाई का भी खर्चा था जो बहुत मंहगा पड़ रहा था। हर महीने आठ आना फीस,थके पांव गोरख के लिये अस्सी रूपये के बराबर लगती थी।जमींदार के खेत में हल जोत जोतकर उसके पांव के तलवे हल खींचने वाले बैल के कंधे सरीखे हो जाते थे ।जमींदार की तूती बोलती थी, सूरज उगने से पहले हवेली पहंुच जाता और देर रात को घर वापस आता।थके पांव गोरख जब घर आता उससे पहले डेबरी की रोषनी में प्रबुद्ध पढाई का काम पूरा कर लेता था।थके पांव गोरख आते ही हाथ पांव धोकर खाना जो भी रूखा सूखा होता खाकर चारो खाने चित। प्रबुद्ध पिता का हाथ पांव दबाने में जुट जाता।प्रबुद्ध सोकर उठता उसके पहले गोरख हवेली जा चुका होता।गोरख और उसके परिवार का जीवन अभावग्रस्त बीत रहा था,भर पेट खाने का भी इन्तजाम नही था। ऐसे समय में उसने बेटवा को पढाने की भगीरथी प्रतिज्ञा से लिया था। राजा हो या रंक सब के दिन बीत जाते है गोरख के दिन बीत तो रहे थे पर दर्द में।इसी बीच प्रबुद्ध आठवीं की परीक्षा पास कर लिया। नौवी कक्षा से वजीफा मिलने की उम्मीद थी,उसके पहले दाखिले के लिये रकम का इन्तजाम होना था। प्रभु की कृपा से तकलीफ से ही सही इन्तजाम हो गया। गांव से पांच कोस दूर स्कूल था, आसपास दूर तक कोई स्कूल नही था। प्रबुद्ध पुरानी साइकिल से स्कूल जाने लगा। थके पांव बाप की तपस्या काम आयी,प्रबुद्ध को सरकारी वजीफा मंजूर हो गया।गोरख की मुष्किल तनिक आसान हूई पर खत्म नही हुई।वजीफा के सहारे प्रबुद्ध बी.ए.तक की पढाई पूरी कर लिया। इसके बाद परदेस जाने की तैयारी में जुट गया। सरकारी नौकरी खरीदने की औकात तो नहीं इसलिये दिल्ली आ गया,छोटे मोटे काम कर अपना खर्चा निकालने लगा, खुद के खाने का इन्तजाम तो नही था पर थके पांव मां बाप के लिये हर मांह सौ रूपया भेजने षुरू कर दिया।चार साल दिल्ली की गलियों में खाक छानने के बाद पांच सौ रूपये महीने बुकषाप में नौकरी मिल गयी।
प्रबुद्ध प्राइवेट पढाई भी कर रहा था,इसी बीच वह एम.ए. की परीक्षा भी पास कर लिया।वह आरक्षण का पात्र था पर नौकरी पाना बस की बात नही थी,चालीस हजार, पच्चास हजार घूस लग रहा था जबकि वह बी.ए. पास था और आरक्षित वर्ग का था।इसके बाद भी नौकरी नही मिली घूस की रकम नही होने के कारण। प्रबुद्ध सरकारी नौकरी का मोह त्याग दिया,इसके अलावा कोई रास्ता नही था,बिना घूस के नौकरी मिलना बहुत मुष्किल था,बेरोजगारी का दौर था कई लोग तो नौकरी के लिये जमीन भी बेच दिये थे,थके पांव के बेटे के पास तो वह भी उम्मीद नही थी।
नेक इरादे के साथ व्यक्ति मेहनतीहो तो श्रम रंग लाता है, प्रबुद्ध को एक अण्डरटेकिंग कम्पनी में एलडीसी की नौकरी मिल गयी। प्रबुद्ध का हौषला बढा उसने प्रषासन से स्नातक करने के लिये प्राइवेट कालेज में प्रवेष ले लिया। बाप की कसम को जो पूरा करना था,अब प्रवुद्ध सचमुच अपने गंाव का सबसे पढालिखा लड़का था,कई पैसे वाले जमीदारों के लड़के भी बहुत पीछे छूट गये थे।दुर्भाग्यवष जातिवाद की बीमारी यहां भी पीछा नही छोड रही थी,सारी योग्यतायें थी परन्तु उच्च जातीय योग्यता नहीं थी।कई उच्च वर्णिक स्नातक की डिग्री होने के बाद भी जनरल मैनेजर तक पहुंच गये थे परन्तु प्रबुद्ध एल.डी.सी. से उपर नहीं पहंुच पर रहा था। छब्बीस साल के बाद उसका सोया भागा जागा प्रमोषन हुआ वह अफसर बन गया परन्तु प्रबुद्ध का अफसर बनना के.एच.घपला साहब को रास नही आ रहा था।
घपला साहब के पिता एक कन्स्ट्रक्षन कम्पनी में बतौर परिचर काम कर रहे थे। अण्डरटेकिंग कम्पनी का बिल्डिंग बनाने का ठेका कन्स्ट्रक्षन कम्पनी को मिल गया।मि.घपला साहब बतौर चाइल्ड लेबर के रूप इसी कन्स्ट्रक्षन कम्पनी में काम कर रहे थे। मि.घपला साहब के पिता ने अण्डरटेकिंग कम्पनी के सी.ई.ओ.का पैर पकड़ लिया।मि.घपला की नियुक्ति बतौर सहायक हो गयी।नौकरी मिल गयी थी मि. घपला प्राइवेट पढाई कर बी.ए.कर लिये। मि.घपला को चापलूसी में महारथ हासिल थी साथ में जातीय योग्यता भी थी। इनकी तरक्की तीव्रगति से प्रारम्भी हो गयी,सताईस साल की नौकरी में वे मुख्य अधिकारी बन गये थे। मि.घपला की तरक्की कई लोगों को चुभ तो रही थी पर मि.घपला उनके सामने भींगी बिल्ली बन जाते थे। मि.घपला की सबसे बुरी बात यह थी कि वे निम्नवर्णिक कर्मचारियों को दुष्मन मानते थे। अमानुशतावादी मि.घपला थे तो भारतीय ही पर षुद्ध रूप से भारतीय मेड यू.एस.ए.थे,जिसका मिलवाटखोरी,घोखाधड़ी में कोई मुकाबला नहीं कर सकता,अपने फायदे के लिए किसी हद तक गिर सकते थे।मि.घपला साहब थके पांव बाप के बेटे प्रबुद्ध के पीछे हाथ धोकर पड़ गये।प्रबुद्ध का प्रमोषन वह भी पच्चीस में हुआ था,उनका नहीं भा रहा था, जबकि मि.घपला एकदम गिरे हुए थे और कैरियर की षुरूआत दैनिक मजदूर के रूप में षुरू किया था,वही मि.घपला जो हैवान हो गये थे,अपना दिन भूलकर,कमजोर वर्ग के प्रबुद्ध को किसी साजिष में फंसाकर नौकरी से निकलवाने के फिराक में जुटे हुए थे।विभाग प्रमुख से प्रबुद्ध की षिकायत करने लगे। विभाग प्रमुख मि.खालू कान के बड़े कच्चे थे,मि.घपला ऐसे लोगों को फायदा वैसे ही उठाना जानते थे जैसे ष्वान के सामने हडडी का टुकड़ा ।
प्रबुद्ध अत्यन्त गरीब परिवार से था उसकी पूंजी उसकी षिक्षा ही थी,उसको ही नही उसके मां बाप को पूरा भरोसा था कि एक दिन वह उच्च अधिकारी बनेगा,इसी की बांट जोहते हुए उसकी मां स्वर्ग सिधार गयी थी । थके पांव पिता डेथ-बेड पर थे ऐसे बुरे वक्त में मि.घपला से मि.खालू से सांठ गांठ कर प्रबुद्ध की नौकरी खाने की जुआड़ में थे। मि.खालू ने उच्च षिक्षित प्रबुद्ध के साथ निम्न स्तरीय पुलिसिया व्यवहार षुरू कर दिया। प्रबुद्ध मि.खालू की थर्ड डिग्री पुलिसिया रवैये से घबरा गया।उसने पिता की बीमारी के आधार पर स्थानान्तरण की अर्जी लगा दिया। मि. खालू को मौका मिल गया, प्रमोषन रदद कर स्थानान्तरण करने की सिफारिष कर दिये और अंधा कानून मान भी लिया पर प्रबुद्ध नहीं माना।
मरणासन्न गोरख ने बेटे के हाथ थामकर कहा बेटा ये जातिवादी घमण्डी लोग नरपिषाच जैसे होते है । तुम मेरी वजहसे अपने सपने की बलि मत दो । यही तो मेरा सपना था जिसके लिये तुम ने रात दिन एक कर दिये। बेटा डेबरी के उजाले तू पढता था तो तेरे चेहरा काला हो जाता था ।बेटा तुमने बहुत परिश्रम किया है।नौकरी के लिये बहुत दुख तुमने उठाया है बेटा।तुम मेरी बीमारी की वजह से बाबूगीरी के पद पर स्थानान्तरण ना लेना बेटा मेरे जीवन की आस थी मेरा बेटा अफसर बनेगा और तुम बना लाख ठाकरें खाकर,इसी दिन की इन्तजार करते करते तुम्हारी मां चल बसी पर उसकी इच्छा पूरी नही हुई बेटा मेरी इच्छा पूरी हो गयी। अब तू अफसर ही बना रहा। कलर्क ना बनना बेटा। तुम्हारी पच्चीस साल के बाद तरक्की हुई है, इस तरक्की को ठोकर ना मार बेटा। अगर तुम अफसर से कलर्क हो गये तो मैं जीते जी मर जाउंगा तुम्हारी में तो इन्तजार मे मर गयी थी । मैं खौफ मे मर जाउंगा ।
थके पांव की तरक्की ना जाने क्यूं नरपिषाचों को अच्छी नही लगती। बेटा हिम्मत रख,नरपिषाचों से हार मत मानना,संघर्श जारी रखना, विकास जरूर होगा । थके पांव बाप का हाथ बेटे के सिर पर था।बेटे के दिल में आत्मविष्वास था और आंखों में गंगा जमुना। थके पांव बाप के आर्षीवाद से प्रबुद्ध की जय जयकार तो हुई और नरपिषाचों की थूं थूं थी। प्रबुद्ध को विभाग के प्रमुखों की बैठक में बुलाया गया,उसे मुबारकबाद भी दिया गया। वह हाथ जोडकर बोला महानुभावों यदि किसी थके पांव के सपने संवार नही सकते तो बर्बाद क्यूं .........? प्रबुद्ध बोला एक वादा कीजिये अब से जाति वंष के नाम पर किसी थके पांव के साथ अन्याय नही होगा । सभी एक स्वर में बोला नही होगा नही होगा। अपराध भाव से सिर झुकाये मि.घपला और मि.खालू सुर में सुर मिला रहे थे ।इतने में प्रबुद्ध के दोस्त तिल गुड़ के लडडू लेकर आये और मि.घपला और मि.खालू देते हुए बोले साहब अब थके पांव इंसान को जीते जी नरक ना देना। बैठक के अध्यक्ष बोले आज का दिन अच्छा रहा कल भी अच्छा होगा । जाति धर्म के नाम पर किसी के साथ अन्याय नही करेंगे, इसी बादे के साथ बैठक के समाप्ति की घोशणा की जाती है ।
डां.नन्दलाल भारती
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