नागफनी सरीखे उग आये है
कांटे ,
दूषित माहौल में
इच्छाये मर रही है नित
चुभन से दुखने लगा है,
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है
चुभन कुव्यवस्थाओं की
रिसता जख्म बन गया है
अब भीतर-ही-भीतर।
सपनो की उड़ान में जी रहा हूँ'
उम्मीद का प्रसून खिल जाए
कहीं अपने ही भीतर से।
डूबती हुई नाव में सवार होकर भी
विश्वास है
हादशे से उबार जाने का
उम्मीद टूटेगी नहीं
क्योंकि
मन में विश्वास है
फौलाद सा ।
टूट जायेगे आडम्बर सारे
खिलखिला उठेगी कायनात
नहीं चुभेंगे ,
नागफनी सरीखे कांटे
नहीं कराहेगे रोम-रोम
जब होगा ,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की,
तुला पर तौलकर
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ…………………
डॉ नन्द लाल भारती
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