Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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युवावर्ग और रचनात्मकता एक विवेचना

 

युवावर्ग और रचनात्मकता एक दूसरे के पूरक है,युवा संरक्षक है तो रचना अथवा साहित्य विरासत/धरोहर। भारतीय समाज में इस साहित्यिक विरासत का विषेश महत्व प्रारम्भ से रहा है। भारतीय समाज को साहित्यिक पाठषाला कहा जाता है।इसी पाठषाला से दीक्षित होकर बच्चा बड़ा होकर हिन्दी साहित्यिक रचनात्मकता से जुड़ जाता है। वह समझ जाता है कि साहित्यकार समाज अथवा युग की उपेक्षा नही कर सकता क्योंकि साहित्यकार की दृश्टि में साहित्य ही अपने समाज का स्वर और संगीत होता है। इसी उद्देष्य को जीवन्तता प्रदान करने के लिये वह लेखन से जुड जाता है।यही लगाव रचनात्मकता और पुस्तक संस्कृति की विरासत बन जाता है। वर्तमान समय में भी युवावर्ग की जुडा़व रचनात्मकता से है। रचनात्मकता की कई विधायें हो सकती है परन्तु मैं हिन्दी साहित्य के परिपेक्ष्य में विचार साझाा कर रहा हूं।आधुनिक व्यावसायिकता की दौर में युवावर्ग का हिन्दी लेखन से मोहभंग हो रहा है क्योंकि हिन्दी रचनाकारों को वह सब कुछ यानि सोहरत और दौलत नही मिल रहा है, सम्भवतः जो अंग्रेजी के लेखकों को मिल रहा है।यही वजह है कि युवावर्ग को हिन्दी साहित्य लेखन आकर्शित नही कर पा रहा है। कुछ उत्साही युवा हिन्दी साहित्य से जुड़ने का जोखिम उठा रहे है,जिसके कारण वर्तमान समय में पुस्तक संस्कृति जीवित है। पुस्तकें भी छप रही है परन्तु आलमारी में सजने तक ही समिति है। इसके कई कारण है वर्तमान समय दूरसंचार क्रान्ति का दौर है,युवावर्ग अन्र्तजाल के गिरफत में है,पाठकों की कमी है। दूसरी तरफ वैष्वीकरण एवं भूमण्डलीयकरण के वर्तमान दौर में सामाजिक ,सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य झंझावतों के षिकार हो गये है। युवावर्ग नैतिक मूल्यो एवं पढने की आदत से दूर,अनिष्चितता तथा बेचैनी के दौर से गुजर रहा है। सामाजिक तथा चारित्रिक मापदण्डों में भी बदलाव आने लगे है। ऐसे समय में विवेकानन्दजी की सोच-हमें ऐसी षिक्षा-दीक्षा की आवष्यकता है, जिससे चरित्र-निर्माण हो,मानसिक शक्ति बढे़, बुध्दि विकसित हो और मनुश्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे और षिक्षा पुस्तक संस्कृति ही दे सकती है। यह तभी सम्भव होगा जब युवावर्ग हिन्दी साहित्य और पुस्तक संस्कृति के महत्व को समझेगा और कल्पनाषीलता और रचनात्मकता के साथ साहित्य सृजन से जुड़ेगा। युवा वर्ग में बढ़ती हिंसक प्रवृति पर पर विचार करने पर यह जरूर उभर कर आता है कि युवा वर्ग/छात्रों का साहित्यिक पुस्तकों से दूर जाना अथवा दूर रखने में संयुक्त परिवार की टूटन और रिष्तों में सिकुड़न काफी हद तक जिम्मेदार हैं। कुछ दषक पूर्व बच्चे दादी-दादी,नाना-नानी एवं नजदीकी रिष्तेदारों के सानिध्य में पलते बढते और पढते थे। आज बच्चों को न लोककथाओं पर आधारित कहानी किस्से एवं लोरियां सुनने को मिल रहे है और ना ही पारम्परिक खेल खिलौने की वस्तुये। वर्तमान दौर में हिन्दी की उपेक्षा देष की उपेक्षा है। आजादी के बाद हिन्दी की जो राजनैतिक स्तर पर जो दुर्दषा हुई है,वह तो जगजाहिर है,इसके बाद भी हिन्दी विष्वपटल पर ग्राह्य हुई है परन्तु हिन्दी को अपने ही देष में राश्ट्रभाशा होने का अधिकारिक दर्जा नहीं प्राप्त हुआ है । संयुक्त राश्ट्र संघ की अधिकारिक भाशाओं में षामिल करना विष्वस्तरीय संगठन संयुक्त राश्ट्रसंघ द्वारा किया जाना है। देष में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का अधिकारिक दर्जा न मिलना सचमुच आष्चर्य का विशय है। यह हिन्दी लेखन एवं साहित्य से विमुख करने का कारण भी है।

 



भारतीय समाज की रचनात्मकता आदिकाल से ही सम्वृद्ध है,इस साहित्यिक सम्पन्नता के उदाहरण के तौर पर पौराणिक कथायें और ग्रन्थ है। भारतीय साहित्य में आजादी के आन्दोलन के प्रारम्भिक काल से साहित्यिक संगठनों को बढावा मिला क्योंकि संगठनों के माध्यम से भारतीय समाज ,राश्ट्रीय एकता और गुलामी की जंजीरे तोड़ने के लिये लेखक निडर लिख रहे थे और उनका साहित्यिक योगदान भारतीय मानव-मन को स्वाभिमान की आक्सीजन से उत्साहित कर उर्जावान बना रहा था । आजादी के दीवाने विजय पथ पर निरन्तर आगे बढ रहे थे । कहा जाता है कि तलवार से अधिक ताकतवर कलम होती है। इस मान्यता में विष्वास रखने वालों ने साहित्यिक संगठनों को मजबूत कर स्वराज के लिये खूब लिखा और काल के गाल पर अमर हुए । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रारम्भ से आजादी के बाद तक साहित्यिक योगदान को नजरअंदाज नही किया जा सकता । नामचीन लेखकोे को छोड़ दिया जाये तो और भी ऐसे अनजान युवा लेखक आजादी के लिये लेखनी की ताकत देष पर न्यौछावर किये, वे तमिल, मराठी, बंगाली, गुजराती ,पंजाबी या अन्य भाशा-भाशी होकर भी संगठनात्मक रूप से जुड़े रहे और उन्हें हिन्दी आजादी के भाशा और राश्ट्र की भाशा के रूप में मान्य थी परन्तु व्यावसायिककरण के इस दौर में हिन्दी साहित्य हाषिये पर आ चुका है,जिसके लिये प्रकाषक,पाठकभारतीय समाज और सरकारें जिम्मेदार है।

 


भारतीय समाज में अनेक युवा लेखन कर रहे हैं परन्तु हिन्दी लेखन से युवावर्ग का जुड़ाव कम होता जा रहा है। जाहिर है बिना वजह यह नही हो रहा है,इसके पीछे कई कारण भी है। वर्तमान षिक्षा पद्धति जो अंग्रेजी को पोशित कर रही है,को प्रमुख कारण माना जा सकता है। इस कारण हिन्दी लेखन के प्रति युवावर्ग का जुड़ाव कम हो रहा है। इसे हिन्दी भाशा और साहित्य पर अतिक्रमण के रूप में देखा जाना चाहिये। पाष्चात्य प्रवृति की बढ़ती देखा-देखी के अनुसरण के कारण रहन-सहन,आचार-विचार के साथ ही हिन्दी साहित्य को भी हाषिये पर रख दिया है,इसमें बड़ी भागीदारी युवावर्ग की है।कैरिअर में बढती प्रतिस्पर्धा भी कारण है परन्तु मांता मातृभूमि और मातृभाशा को रोजगार के तराजू पर तौलना उचित तो नही लगता। कई भाशाओं में विषेशज्ञता हासिल करना विद्वता की परिचायक है परन्तु स्वयं की मातृभाशा-राश्ट्रभाशा को नजरअंदाज कर देना आर्थिक एवं दिखावे की पाष्चात्य सांस्कृतिक सम्पन्नता का द्योतक तो हो सकता है परन्तु राश्ट्र और राश्ट्र भाशा के प्रति न्याय तो नही कहा जा सकता। इसके लिये दोशी कोई और नही भारतीय षिक्षा पद्धति और नीतियां ही है।अंग्रेजी को रोजगार की भाशा घोशित कर देने की वजह से अंग्रेजी षिक्षा की ओर रूझान इतनी बढ़ गया है कि हिन्दी पद्धति से षिक्षा प्राप्त युवा स्वयं को पिछड़ा हुआ पाता है। यकीनन इस वजह से हिन्दी साहित्य से युवावर्ग का मोह षनै-षनै कम होता जा रहा है।

 


रचनात्मकता अथवा लेखन की जहां तक बात है युवा वर्ग जिस भाशा में शिक्षा प्राप्त करता है,उनकी विचार प्रक्रिया,रचनात्मकता,सृजनात्मकता क्षमता उसी भाशा में कुसुमित होने लगती है। बोलचाल की भाशा हो या लेखन की सामान्यतः अपनी मातृभाशा में ज्यादा अनुकूलता के साथ व्यवहार सम्भव होता है। हिन्दी भाशा सम्पन्न एंव विष्वबन्धुत्व की भाशा है,ऐसा कदापि नही है कि हिन्दी भाशी क्षेत्रों में योग्यता की कमी है परन्तु अंग्रेजी को सिरमौर्य साबित करने का प्रयास ही घातक साबित हो रहा है। इसी वजह से पठन-पाठन की रूचि में कमी आने लगी है।संक्षेप में कहा जाये तो इसके लिये भारतीय समाज,प्रकाषक और काफी हद तक इसके लिये सरकारे जिम्मेदार है। आज युवावर्ग अपने भविश्य को लेकर ज्यादा चिन्तित है,इस चिन्ता को घोटालेबाज और बढ़ा रहे है,मध्य प्रदेष का पी.एम.टी.फर्जीवाड़ा इसका ज्वलन्त उदाहरण है,पी.एम.टी.के फर्जीवाड़े के जिम्मेदारों को फंासी की सजा भी कम लगती है।इस तरह के फर्जीवाड़े युवावर्ग के सामने संकट पैदा कर देते है।युवावर्ग कैसे रचनात्मक कार्यो से जुड़ सकेगा कही ना कही भारतीय समाज भाशा,जाति,क्षेत्र एवं अन्य मुद्दों से जुड़े रहकर युवावर्ग को दिषाहीन बना रहा है।लेखन एवं साहित्यिक पुस्तक संस्कृति की ओर न उत्प्रेरित कर भटकाव पैदा कर रहे है। होना तो ये चाहिये कि रोजगारोन्मुखी षिक्षा के साथ युवावर्ग को साहित्यिक,सांस्कृतिक एवं नैतिकमूल्यों को पोशित करने वाली पुस्तकें पढ़ने के लिये प्रेरणा दी जानी चाहिये,ऐसा नही होने की उपज ही तो है अनाथ आश्रम,वृद्धाश्रम एवं अन्य उद्धारगृह। आज रंग बदलते परिवेष में सब कुछ कैरिअर के ऐनक से देखा जा रहा है। जैसाकि मान्य है कि साहित्य में अन्य क्षेत्रों की तुलना स्थापित होने में ज्यादा समय लगता है क्योंकि यहां भी कुर्सी मोह पालथी मारे रहता है,सम्भवतः इसलिये भी युवावर्ग इस ओर ध्यान देने की बजाये दूसरे क्षेत्रो की चकाचैध की तरफ सरपट भागने लगा है।वर्तमान में साहित्य क्षेत्र भी बाजारवाद एंव स्वार्थ की भेंट चढ़ चुका है।लेख है कि लीक से हटना भी नही चाह रहे है। इन ढेर सारी मुष्किलों के बाद भी हिन्दी साहित्य विरान नही हुआ है,अभी भी सम्वृद्ध एवं सम्पन्न है परन्तु इसे युवावर्ग के साथ की जरूरत है और युवावर्ग को समर्थ हिन्दी रचनाकारों के सहयोग की तभी युवावर्ग हिन्दी रचनात्मकता को नया क्षितिज प्रदान कर जीवन्तता प्रदान कर सकेगा।वर्तमान में अनेक युवालेखकों द्वारा रचनात्मक हिन्दी साहित्य लिखा जा रहा है परन्तु उन्हें मंच नही मिल रहा है,उनकी पुस्तकों को प्रकाषक नही मिल रहे,प्रकाषक मिल रहे है तो लेखक से पूरी कीमत वसूल रहे है,यह जोखिम हर लेखक उठा नही सकता है,अखबारों में हिन्दी साहित्यिक पन्ने खत्म हो गये है या नही के बराबर हो गये है परिणाम स्वरूप पाठकों तक पुस्तकें/रचनायें पहंुच नही पा रही हैै।इससे युवावर्ग की रचनात्मकता को ग्रहण लग रहा है। दूसरी ओर जो पुस्तके आ रही है अधिकतर उनकी विशय वस्तु स्त्री-पुरूश सम्बन्धों एवं षहरी जीवन के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। वर्तमान में आ रही पुस्तकों से ग्राम्यजीवन कोसो दूर हो गया है।संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय साहित्यिक,सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखना है तो युवावर्ग और उसकी रचनात्मकता को पहचान देने के भारतीय समाज और सरकार को आगे आना होगा।

 

 

 

डाँ नन्द लाल ’ भारती ’

 

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