Swargvibha
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दो रूपये का चोर

 

 

डां.नन्दलाल भारती

 


आजादी के बाद दबा-कुचला वर्ग भी पढ़ाई को महत्व देने लगा तो था परन्तु रूढ़िवादी व्यवस्था इनके राह में कांटे बो रही थी।काफी बरस के लम्बें के संघर्श के बाद निम्न वर्ग के बच्चे निःसंकोच स्कूल जाने लगे थे परन्तु समस्या खत्म नही हुई थी।इस वर्ग के बच्चों को स्कूल का बाल्टी लोटा छूने की इजाजत नही थी। निम्न वर्ग के बच्चे प्यासे ही रह जाते थे घर से पानी पीकर जाते थे और घर ही आकर पानी पीते थे।इस त्रासदी से अक्सर बच्चे स्कूल छोड़ देते थे परन्तु दुखीराम का बेटा नरेष मां बाप की जिल्लत भरी जिन्दगी को देखकर उसने कसम खा लिया था कि वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर षहर जायेगा। कहते है ना हिम्मते मरदा मरदे खुदा।उसके सामने कई मुष्किल आयी पर हार नही माना। उसके सामने कापी-किताब की समस्या मुंह बाये खड़ी रहती थी। कहने को तो निम्न वर्ग के बच्चों को पढ़ाई के लिये प्रोत्साहित करने के लिये सरकारी वजीफा की व्यवस्था थी पर नरेष को नसीब नही हुई। गरीबी के बोझ तले दबा वह दूसरीी जमात तो पास कर लिया।तीसरी जमात की पढ़ाई षुरू हो गयी थी। कुछ पुरानी किताब स्वजातीय छात्र ने दयावष दे दिया था जिससे उसके पास किताब का आंषिक इन्तजाम हो गया था परन्तु कापी का इन्तजाम नही हो पा रहा था।। उसके बाप को बेटेे की पढ़ाई पर नाज तो बहुत था पर उसकी जरूरतों को वह तनिक नही समझता था। नरेष के सुुखिया मंा और दुखीराम बाप दोनों जमींदारों के खेत में मेहनत मजदूरी करते थे कुछ उपार्जन होता गृहस्थी की गाड़ी रेंग रही थी।दुखीराम जमीदारों की सोहब्बत में बचपन से था,क्योंकि आंख खुलते ही वह गांव के बड़े जमींदार का बंधुवा मजदूर बन गया था उसके बाप को गांव के कुछ जमींदारों ने मार-पीट कर उसकी जमीन हड़प कर गांव से भगा दिया क्योंकि दुखीराम का बाप सुखई तनिक अंग्रेज अफसरों के साथ रहकर समझदार हो गया था। यही समझदारी उसकी दुष्मन बन गयी थी। वह गांव से ऐसा भागा कि कभी लौटकर नही आया।कहने को कुछ लोग तो कहते थे कि वह देष की आजादी के लिये कुर्बान हो गया पर इसका कोई प्रमाण न था । बेबस और लाचार दुखीराम को जमीदार की हरवाही के अलावा और कोई चारा न था तनिक सुरक्षा भी थी क्योकि गांव के बड़े जमीदार का नौकर जो था।
जमीदार के बच्चों कोस्कूल जाता देखकर सुुखिया और दुखीराम ने तय कर लिया था कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे ।हवेली में कभी कभी जमींदार साहब की पढ़़ाई को लेकर बच्चों को दी जा रही समझाईस दुखीराम के प्रतिज्ञा को और मजबूत कर देती थी। एक दिन दुखीराम के कान में वो बात पड़ गयी जो नही पड़नी थी। बात ये थी कि गांव के कथावाचक नीम की छांव में बिछे तख्त पर बैठे हुए थे। इतने में दुखीराम कंधे पर हल और बैलों की जोड़ी खेत से लेकर आया। बैलों को खूंटे पर बांध कर हौदी साफ करने में जुट गया जो नीम से तनिक दूर थी। कथावाचक बोले बाबूसाहब तुम्हारा मजदूर बहुत मेहनती है। देखो कंधे पर से हल रखते ही हौदी साफ करने में जुट गया।
जमींदार यानि बाबू साहब बोले बाबा हवेली के काम को अपना काम समझता है,आंख भी तो सही मायने में इसकी हवेली में खुली है।
कथावाचक-फर्ज भी तो पूरा निभा रहा है।
बाबूसाहब-मेहनती है पर बेवकूफ है।
कथावाचक-जातीय दोश है तभी तो बंधुवा मजदूर है पर सानी है। अपनी बात पर जान गंवा देते है ऐसे लोग।मालिक इनके लिये भगवान होते हैं।
बाबूसाहब-जमाना बदल रहा है।मजदूरों के लड़के स्कूल जाने लगे है,जब पढ़ लिख जायेगे तो मजदूरों के टोटे पड़ने लगेगे।
कथावाचक-बाबू दुखीराम जैसे अनपढ़ मजदूर ही मालिकों को सुख बदते है।अनपढ़ और बेवकूफ मजदूर होने के बहुत फायदे है चाहे जिस काम में लगा दो कोल्हू बैल की तरह ।दुखीराम तनिक स्कूल गया होता और समझदार होता तो इतनी वफादारी करता। नही ना तब तो वह अपनेा लाभ हानि के बारे में सोचता। देखना दुखीराम का लड़का हाथ से ना निकल जाये।पढ़ने लिखने लगेगा तो बाबूसाहब तुम्हारी हलवाही नही करेगा।
ये बात खामोष ही दुखीराम के कान में पड़ गयी। वह गुस्से में लाल तो हो गया। उसके मन में तो आया इस कथावाचक को पटककर उसकी छाती की हड्डी तोड़ दे पर बाबू साहेब की हवेली की षान जो थी वह कुछ नही बोला । दिन भर खामोष रहा। कुछ नही बोला।हवेली से रात को जब घर से चला तो उसका मन बहुत बोझिल था। वह हवेली से कुछ दूर खड़े विषाल पेड़ को पकड़कर खूब रोया।अपनी प्रतिज्ञा को आंसू की घूंटी पिलाकर और मजबूत कर लिया था ।दुखीराम मेहनती तो था पर मन का निष्चल और सीधा साधा भी था। उसे पढ़ाई के लिये क्या लगता है पता तक ना था । उसकी सोच थी कि बस स्कूल जाना से ही पढ़ाई हो जाती है।उसने इतनी जिद जरूर कर लिया था कि वह अपने बेटे को जमींदार के बेटे से अधिक पढ़ा लिखा बनाया। पढाई का खर्च कैसे और कहां से आयेगा इसके बारे में वह कभी ना सोचा ।
नरेष तीसरी जमात में पढ़ रहा था उसके पास कापी किताब न था । स्याही-दवात दो चार आने की आ जाती थी तो महीने चल जाती थी,इसकी पूर्ति मां सुखिया अनाज दे देती थी नरेष गुन्नूसाहु की दुकान से खरीद लेता था । खैर गुन्नू साहू बड़े सेठ थे। उनकी दुकान में किराना,कपड़ा स्टेषनरी का सामान भी मिल जाता था बस पैसे होने चाहिये या ढेर सा अनाज। सुखिय के बार-बार कहने पर दुखीराम आठ आना या एक रूपया कापी किताब के लिये दे देता था। इतने में नरेष का काम चल जाता था।नरेष मां का पल्लू पकड़कर ही अपनी जरूर बताता था । बाप से उसे डर लगता था। लेकिन दुखीराम नरेष मन लगाकर पढाई कर रहा है,यह तो समझता था लेकिन किताब कापी के खर्च के बारे में कभी नही पूछा होगा। खैर बंधुवा मजदूर तो था ही जमींदार साहब ने उसे गांजा की लत लगा दिये थे। चार आना दे देते कभी-कभी या एक चिलम गांजा। दुखीराम गांजा की कष लगा लेता तो जमींदार साहब कहते दुखिया गांजा भगवान बोले का परसाद है,इसको पीने से मन में अचछे विचार आते है।दुखीराम तो था ही मेहनतकष मन का सच्चा जमींदार की बातों से इतना प्रभावित हुआ कि गांजा का दीवाना हो गया। घर में बच्चे भूखे सो जाये इसकी परवाह उसे नही होती थी अगर उसे गांजा नही मिला तो पूरा घर सिर पर ले लेता था।हां उसे एक बाद नही भूलती थी की नरेष को जमींदार के बेटवा से अधिक पढ़ाना है पर कापी किताब की फिक्र ना था।
एक दिन कापी न होने की वजह से नरेष को स्कूल में मुंषीजी की खूब डांट खानी पड़ी वह स्कूल से रोनी सूरत बनाये घर आया,बस्ता रखा। मां ने रोटी चटनी दिया खाया पानी पीकर उठा। उसकी खामोषी सुखिया ताड़कर बोली बेटा स्कूल में किसी लड़के से झगडा तो नही हो गयी। वह कुछ नही बोला। चुपचाप बकरी चराने चला गया। अंधेरा होने के बाद वह वापस लौटा ।वह बकरी बांध कर भैंस को चारा डाला और सलटू के साइकिल रिक्षा पर बैठ गया । सलटू लालगंज कस्बा में रिक्षा चलाकर परिवार का भरण पोशण करता था। कस्बा से वापस लौटकर उसके घर पर खड़ा कर कोस भर दूर अपने घर पैदल ही जाता था। रिक्षा पर वह बैठे बैठे कापी खरीदने के उपाय सोचने लगा।कभी वह सोचता कि उसके घर के सामने बन रही सड़क पर मजदूरी कर कुछ पैसा कमा ले। फिर उसके मन में विचार आया क्यों न वह ईंट भटठे पर काम कर कुछ पैसे जोड़,उसके हम उम्र बस्ती के कई लड़के तो काम करते है पढाई छोड़कर। उसे अपने बाप की प्रतिज्ञा याद आ गयी। उसे लगा कि उसके बाप उसकी टांग पकड़ कर नीम के चबूतरे पर पटक दिये हो स्कूल ना जाने की गुस्ताखी में।वही बाप जो उसे स्कूल भेजकर बेफिक्र हो गांजा के धुंआ में जिन्दगी उड़ाये चले जा रहे थे। कई बार नरेष ने मना करने का प्रयास भी किया था पर वे नही माने थे। कई बार तो गांजा दारू से तौबा करने की सीख पर उसकी मां सुखिया को मारने को भी दौड़ाया था उसके बाप ने। कल की तो बात उसे याद आ गयी उसके बाप षाम को जब उसकी नानी के घर से वापस आये थे तो कुर्ता निकाल कर नरेष को घर में खूंटी पर टांगने को दिया था कुर्ता के नीचे वाले पाकेट में कुछ रूपया तो था पर उसने जांच पड़ताल नही कियष था । यह इकलौता कुर्ता दुखीराम जब कभी रिष्तेदारी जाता तो पहनता था बाकी समय खूंटी पर टंगा रहता। बस्ती से हवेली तक के काम में तो लूंगी और बनियाइन काम आता थी इससे ज्यादा की औकात भी ना थी।नरेष आने मां बाप की मजबूरी समझता।जुलाई में नरेष अपने बाप से कापी किताब खरीदने के लिये कहा था पर दुखीराम ने कहा था बकरी बिक जाने दो सब खरीद लेना। चिक बकरी खरीदने आया तो पता लगा कि बकरी गर्भवती है, नही लिया। बा पके पाकेट के पैसे जैसे उसे उकसा रहे हो कि वह उनमें से कुछ पैसे लेकर पल्हना जाकर कम से कम कापी तो खरीद ही सकता है।
वह गर्दन झटकते हुए उठा खूंटी पर टंगे कुर्ते की ओर लपका फिर ठिठक गया। सोचा घर में चोरी वह भी अपने बाप के पाकेट से।चोरी करना तो अपराध है,लत लग जाने पर बुरे रास्ते पर आदमी चल पड़ता है। फिर उसके मन में विचार आया पिताजी तो हमारी जरूरत को समझते नही।चलो हवेली से आये तो फिर एक बार कापी के लिये पैसा मांग लूंगा। वह अंगुली पर हिसाब लगाने लगा,बारह आने का एक जिस्ता कागज, चार आने की स्याही,स्केल एक लाइन वाली कापी कुल डेढ रूपये की जरूरत है इतने में काम तो चल जायेगा। बाबू को समझा दूंगा,कुर्ता की ओर बढ़ता हाथ पीछे खींच लिया। भैंस और बकरी को बरदौल में बांधकर पढ़ने बैठ गया। देर रात तक वह बाप की इंतजार में बैठा रहा कि वह हिम्मत करके पैसे मांग लेगा। उनके पाकेट में तो कल पैसा था पर दुखीराम नही नहीं आया। सुखिया रोटी बनाकर रोज इंतजार करती थी। देर रोत को उसे हवेली से छुट्टी मिलती थीं। घर आते ही गांजा का धुआ गाल भर-भर उड़ाता इसके बाद खाना खाता कुछ बच जाता तो बेचारी सुखिया खा लेती नही बचता तो पानी पीकर डंकार लेता और उसके बगल में लेट जाती।आज भी ऐसे ही हुआ नेरष बैठा-बैठा सोने लगा,सुखिया अपने हाथो से नरेष को बड़ी मुष्किल से रोटी खिलाई थी।इसके बाद वह सो गया था। सुबह तो बाप से मुलाकात होना मुष्किल था क्योंकि सूरज उगने से पहले दुखीराम को हवेली पहुंचना ही होता था।
दूसरे दिन नरेष स्कूल आया और बस्ता रखा । उसके बाप का कुर्ता वहीं खूंटी पड़ा वह हिम्मत करके बाप का थैला टटोलने लगा। उसे अपने बा पके थैले से दो-पांच के नोट,एक चवन्नी दो पांच और बीस पैसे के कुछ सिक्के मिले पर इन सिक्कों से उसका काम होने वाला नही था। वह जल्दी से दो रूपये का नोट नेकर के नाड़े में डाल लिया । दो रूपया का नोट बाप के थैले से निकालने में उसे दो दिन लग गये थे। दो रूपया का चोरकर अपनी छोटी बहन से बसन्ती तू बकरी संभाल लेना मैं पल्हना जा रहा हूं ।
बसन्ती-पल्हना क्यों ?
नरेष-कापी बनाने के लिये कागज लाना है।
बसन्ती-पैसा कहां से मिला ।
नरेष-स्कूल से आ रहा था,खेत में दो रूपये का नोट पड़ा था। इतने में कापी का काम तो हो जायेगा।
बसन्ती-जा भईया जल्दी आना।
नरेष गड़ारी-सिकंजा उठाया और पल्हना की ओर दौड़ पड़ा।पल्हना बाजार पहुंचने से पहले ही पकौड़ी की खूषबू उसके नथूने को भाने लगी था। भगवती माई के धाम के पहले गली में तो कुछ ज्यादा ही खूषबू आ रही था षायद आलू की टिकिया छन रही था। गद्दी पर पालथी मारे बैठी कुन्टल भर वजनी मोटू हलुवाई की औरत बोली अरे बाबू कहां जा रहे हो आओ ना टिकिया खा लो । वह बोला नही काकी पैसा नही है। सेठानी बोली थी बिना पैसे के बाजार आये हो।नरेष उसकी बातों को अनसुना कर आगे भागा और पाल्हमेष्वरी पुस्तक भण्डार पर ही रूका। कागज,स्याही,पेंसिल एक रूपया बारह आने में सब खरीदा और वहां से सीधे घर की ओर गड़ारी लेकर दौड़ पड़ा।बची चवन्नी मां के हाथ पर रखते हुए बोला मां दो रूपया रास्ते में किसी का गिरा पड़ा मिला था उससे कागज,स्याही,पेंसिल पल्हना से खरीद लाया।
सुखिय मां बोली-बेटा पल्हना गया था चार आने का खा लिया होता।
नरेष- मां तेरे हाथ का बना खाना खाने के बाद कुछ खाने का मन कर सकता है क्या ?
सुखिया-बेटवा की बला उतारते हुए बोली बेटा मैं तेरी मां हूं सब समझती ही।हम गरीब है,तरी जरूरतें नही पूरी कर पा रहे है। तेरे बाप को हवेली से फुर्सत नही दो सेर दिन भर की मजदूरी मिलती है। सूरज उगने से पहले जाते है आधी रात को वापस आते है।गम को हवा में उड़ाने के लिये गांजा का दामन थाम लिये है। मना करने पर नही मानते। मैं समझती हूं ये जमींदार की साजिष है,ताकि हम उनके बंधुआ मजदूर बने रहे। बेटा तू ही इस खानदान का चिाराग है,इस खानदान को तुम्हे ही रोषन करना है।मुसीबतों में तू पल रहा है पर हार नही मनना,पढ़ाई से मुंह ना मोड़ना मुष्किलें और भी आयेगी।
नरेष-हां मां जानता हूं तुम्हारा हाथ मेरे सिर पर है मुष्किलें हार जायेगी। मां का आर्षीवाद पाकर वह सफेद कागज से कापियां बनाने बैठ गया। इसके बाद वह पढ़ाई करने में जुट गया। काफी रात बित जाने के बाद दुखीराम हवेली से लौटा,नरेष को पढ़ता हुआ देखकर बोला बेटवा आज सोया नहीं।
सुखिया-बेटा को दो रूपया परूवा मिला था उसी का कागज कलम खरीद कर लाया है,पिछली पढ़ाई का काम पूरा कर रहा है।खैर पढ़ाई का काम तुम क्या समझो।
दुखीराम-ठीक कह रही हो,स्कूल का मुंह देखने का मौका ही नही मिला तो क्या जानूंगा। चलो बेटवा की वजह से तुम पढ़ाई क्या होती है जानने लगी। मुझो विष्वास हो गया कि अब बेटवा जमींदार के बेटा से आगे निकल जायेगा।
सुखिया-जमीदार के पास पच्चीस एकड़ जमीन है,करोड़ों रूपया बैंक में जमा है।सोना,चांदी,अपरम्पार गिन्नियां से तिजोरी भरी हैएउनका मुकाबला कैसे कर सकते है।
दुखिराम-भागवना हौषला तो बेटवा के पास है।देखना अपनी वचन जरूर सही साबित होगी।
सुखिया-लगता है तुम्हारे सिर भोलेबाबा चढ़ चुके है।अब तुम खाना खा लो सो जाओ सुबह काम पर जाना है,ज्यादा मत बोलो।
दुखीराम-तुमको ऐसा क्यों लगता है में गांजे के नषे में डूबा रहता हूं।
सुखिया-क्योंकि घर आते समय तुमको एक चिलम गांजा देते है बड़े जमीदार तुम और दूसरे मजदूर बतिया -बतिया का गाल भर-भर धुआं उड़ाने के बाद घर आते हो।ये जमीदार की चाल है तुम लोग नही समझते हो। चिलम भर गांजे के लिये जमींदार के आगे पीछे दुम हिलाते रहते हो । अरे जमीदार इतने मददगार है तो गांज की कीमत षाम को आते तुम्हारे हाथ पर रख देते तुम उसका नून-तेल लेकर आते तो समझती कि जमीदार साहब बड़े हमदर्द है।
दुखीराम-दो रोटी दोगी या ताने से पेट भरोगी।
सुखिया-पिछले जन्म के किये पाप का दुख अब भोग रही हूं अब और पाप ना बाबा ना तुम तो खा लो।जा बेटवा तू भी अब सो जा।
नरेष-हां मां।
दुखीराम खाना खाने के बाद खर्राटे मारने लगा।सुखिया चूल्ह चैका का काम निपटाकर दुखीराम के बगल में लेट गयी। दुखीराम का परिवार दुख के दलदल में फंसा रहा,दुख खत्म होने का नाम नही ले रहा था पर हौषला की कमी नही थी। नरेष पांचवी कक्षा अव्वल दर्जे से पास कर गया। यह खबर हवेली के लिये मातम से कम न था फिर क्या परीक्षा पास करने का सिलसिला जारी हो गया। षिक्षा के इस महायज्ञ में सरकारी छात्रवृति की बड़ी भूमिका रही।अन्ततःनरेष बी.ए. और एम.ए.की परीक्षा भी पास कर गया। जीमदार साहब ने अपने बेटे को बी.ए.की डिग्री खरीद लाये थे इसी डिग्री के भरोसे उंच सरकारी ओहदा भी लूट लिये था पर नरेष को सरकारी नौकरी नही मिल सकी क्योंकि नौकरी खरीदने के लिये उसके पास दौलत और ना पहुंच थी। वह षहर में बाप के मान-सम्मान और उसके वचन को पूरा करने के लिये षहर में छोटी मोटी नौकरी करते हुए भी पी.एच.डी.की डिग्री तक हाषिल कर लिया था।दुखीराम बड़े गर्व से कहता बेटवा मेरी कसम पूरी कर दिया। लोग कहते जमींदार के बेटे जैसी नौकरी तो नही मिली।वह कहता यह जातीय अभिषाप और सरकारी खामियों का प्रतिफल है पर मेरे बेटवा ने मुझे वह खुषी दी है जिसे दुनिया की कोई दौलत नही दे सकती।बाप की खुषी को देखकर नरेष दुखीराम का पांव पकड़कर बोला पिताजी माफ करना।
दुखीराम-किस लिये। बेटा तुमने तो मेरा जीवन धन्य बना दिया माफी कैसी। माफी तो मुझे मांगनी चाहिये मैं तुमको कोई सुख-सुविधा नही दे पाया तू जातिवाद और गरीबी का जहर पीते हुए भी वह कर दिखाया जो गांव के बड़े-बड़े जमीदार के बेट न कर पाये।
नरेष- पिताजी गलती का बोझ मेरी छाती पर भारी पड़ने गला है।
दुखीराम-कैसी गलती बेटवा।
नरेष-पिताजी दो रूपय का चोर आपके सामने खड़ा है।
सुखिया बोली-चवन्नी मेरे हाथ पर रखा था एक रूपया बारह आने में कागज,पेसिंल।बेटवा वा चेारी नही।दुखीराम बेटवा मैं भी जानता हूं तेरा बाप जो हूं कहते दुखीराम ने नरेष को गले लगा लिया। मां सुखिया और बाप दुखीराम के ही नही वहां उपस्थित लोगों के आंखों से भी गंगा जमुना निकल पड़ी थी।

 

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