मनिआर्डर
खेतचन्दर निहायत शरीफ, इज्जतदार सीधे-साधे परन्तु तनिक जिद्दी इंसान थे।ना जाने किसने उनके मन में भर दिया कि तुम्हारा बेटा राजेंद्र बी.ए.पास करते ही अफसर बन जायेगा।राजेन्द्र वजीफा के भरोसे पूरी लगन से पढाई कर रहा था।
राजेन्द्र कुछ पिता खेतचन्दर के उम्मीदों की फसल लहलहा उठी थी।बी.ए.का रिजल्ट आते ही खेतचन्दर ने बेटा की नाकों में दम कर दिया।यह ऐसा बुरा वक्त था जब पढे लिखे बेरोजगार दनादन आत्महत्या कर रहे थे।
राजेंद्र दिल्ली की ओर सौ रूपये का कर्ज और कुछ मां के हाथों का दाना-भुजैना लेकर निकल पड़ा।जहां ना सिर को छांव थी ना कोई अपना । कुछ था तो बीए पास की डिग्री ।
शहर पहुंचते ही सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा मिला । बड़ी मुश्किल से दिल्ली शहर में पन्द्रह रूपये रोजहाई का काम मिला एक फैक्ट्री में मिल गया।उधर गांव मे राजेंद्र के पिताजी डाकिया से रोज मनिआर्डर की खबर पूछने लगे । गांव वालों से उलाहना भी देते बेटवा शहर जाकर भूल गया हम यहां सुर्ती तम्बाकू के नस्तवान हैं।
उधर शहर मे राजेन्द्र के फांकें के दिन गुजर रहे थे । पहली तनख्वाह मिलते ही राजेन्द्र ने बाप के नाम सौ रूपये का मनिआर्डर कर दिया अपने सारे खर्च को ताख पर रखकर।ताख पर रखे खर्चे थे -खुराकी, झुग्गी का किराया और बहुत कुछ।
डाकिया बिना पूछे मनिआर्डर लेकर पहुंचा और आवाज लगाते हुए बोला खेतचन्दर लो तुम्हारे बेटवा का मनिआर्डर आया है।
कितने का है खेतचन्दर बोले ।
सौ रूपये का डाकिया बोला।
बस सौ..........?
सौ रूपये के पीछे का दर्द तुम क्या जानो डाकिया बोला ?
हम तो शहर प्रदेश कभी गए ही नहीं ।बच्चों को पालने पोषने मे लगे रहे ।
गए होते तो गांव से शहर गए बेरोजगार अपनी औलाद के दर्द का जश्न न मनाते, कहते हुए डाकिया साइकिल का पैडल मार दिया ।
नन्द लाल भारती
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