Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आदमी दुःख का दरवाजा खोल रहा है

 
आदमी दुःख का दरवाजा खोल रहा है


वो लोग भी थे,
कई फांकें में निकाल देते थे
मजाल क्या ?
सांस भी शिकायत कर दे
परिवार बंधे होते थे,
प्रीति  से मजबूत जनाब
मुखिया था सिरताज ,
सब साथ रहते थे,
सुख-दुख साथ सहते थे
संतोष की सांस आगे बढ़ने को कहती थी 
कुछ पाने,बांट कर खाने की खुशी थी,
रिश्ते  विहसा किया करते थे,
एक तवा की रोटी,
साथ साथ छकते थे,
नाती-पोते दादा दादी की थी जिम्मेदारी 
संयुक्त परिवार का सुख था अद्भुत भारी 
नाती पोते दादा-दादी से,
मिलने को तड़पते हैं,
नियति क्या बदली, दादा दादी के,
नयन अब बरसते हैं,
ना जाने कैसी हवश,कैसी खुदगर्जी ने,
दिल -दिमाग को पथरवा बना दिया,
अपनों को अपनेपन के सुख से,
वंचित कर दिया,
हालात आज कुछ अजीब है़
धन सम्पदा भरपूर पर दिल से गरीब है,
भरे हैं कोठे अटारी, बैंक में रूपए भी,
भरे पड़े हैं साहब,
क्या तरक्की है जनाब आजकल,
टूटता परिवार, बिखरते लोग
ना कुसुमित नेह सब बाजार से सजे लगते हैं
कहने को अपने बाबू पर सच में नहीं लगते हैं
संयुक्त परिवार का बिखराव कलेजा नोच रहा
माया का ताण्डव सिर पर,
आदमी खुद की बस सोच रहा।
मरते रिश्तों की छाती पर लात रखें,
सुख-खुशी और समृद्धि खोज रहा 
निकल रहे रिश्ते के जनाजे दरवाजे से
सुख का दरवाजा बंद कर आदमी,
दुःख का,दरवाजा खोल रहा।


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