लघुकथा : आखिरी विदाई
पचास साल पहले की बात है देवनरायन,हम भाई बहन छोटे-छोटे थे। बड़ी बहन दस साल की मैं सात के आसपास का ।मांताजी को गम्भीर पेट की बीमारी हो गई थी जिसका आपरेशन शहर के अस्पताल में हुआ था।पिताजी मां की देखरेख में अस्पताल मे महीनों पड़े रहे।हम भाई-बहन सगी काकी के सहारे थे।एक भैंस थी ,दो बैल जो हम भाई बहन के भरोसे थे।चारा काटना मुश्किल भरा काम था,घास काटना, बांस की पत्तियां तोड़कर लाना, घास नहीं होने पर गन्ना काटकर लाते थे। टोकरी पर चढकर चारा काटने वाली मशीन खींचते,हम भाई बहन का यह भागीरथी प्रयास था उपर से आजी जिसके आंख की रोशनी लगभग जा चुकी थी ।
ऐसी विपत्ति के वक्त काकी हम लोगों को छोड़कर केला व्यापारी काका के पास दिल्ली चली गई वह भी बिना किसी को बताये। बेचारी बहन के उपर सारा दारोमदार आ गया। बेचारी बहन हाथ की चक्की से गेहूं पीसती,खाना बनाती । मैं भी साथ देता। मां ठीक होकर आ गई थी। हम भाई बहन भी आज दादा- दादी हैं। अब ना मां रही ना पिताजी ।आज पिताजी की अन्तिम विदाई है, पर आज तक काका-काकी हालचाल पूछने भर को नहीं हुए देवनरायन ।
विपत्ति का समय कट गया,वक्त ने तुम्हें बहुत खुशियां दिया है प्यारे, फिक्र ना करो, दादा की विदाई मे जो मेला लगा है वह अच्छी करनी का फल है, सबको जाना है फिक्र ना करो भैया नरोत्तम ।
फिक्र नहीं बस तनिक अफसोस ।
कैसा अफसोस ?
काका-काकी द्वारा रची ये दूरियां मिटेगी कैसे ?
वह भी तुम मिटा दोगे,देवनरायन नरोत्तम के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला अभी तो दादा की आखिरी विदाई करो ।
डां नन्दलाल भारती
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