अधूरी कविता
उम्र रोज बढ़ती है, बढ़ रही है
नेक नया नित करने को कहती है
मेरी भी उम्र बढ़ रही है
बढ़ती हुई उम्र
जीने को दिल खोलकर कहती है
हमने भी जीया है दर्द में ही सही
सीया है सपने अपने, अपनों के भी
जी लिया मैंने अब तक
उतनी अब उम्र नहीं होगी
मैंने कोशिशें की है बहुत
कामयाब भी हुआ हूं
दर्द के पहाड़ पर सम्भल कर
आंखों में चमक दिया है
निजी स्वार्थ को त्याग कर
वहीं आंखें अब हमें ही घूरने लगी है
डर तो लगता है
मन कहता है डर मत पगले
अब तक अपनों के लिए जीया
अब तो खुद के लिए और दूसरों के लिए जी ले
बढ़ती उम्र डरने की बात नहीं है
जिन्हें माना था अपना
मोह पालकर ठीक तो किया
मोह के बदले तुम्हें क्या मिला
तुम मानते हो जितना जी लिए
उतनी उम्र तुम्हारी नहीं है शेष
त्याग दो रोष
शुरू कर दो जीवन की दूसरी पारी
गैरों के लिए बिना किसी मोह के
यहां तुम्हें मिलेगा
मान सम्मान और खुशी
किसी रोते हुए उदास चेहरे के आंसू
पोंछकर तो देख लो ।
नन्दलाल भारती
१६/११/२०२३
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