कविता : अस्पताल
अस्पताल जहाँ बीमार
उम्मीद की आक्सीजन पर आता है
निरोग होने के लिए
यहाँ परमार्थ जैसी कोई बात नहीं
अधिकतर अस्पताल दुकान है
सौदागर सजा कर रखते हैं
दुकान अपने अपने रंग की
हाँ यहाँ धनतेरस दीवाली के कोई
आफर नहीं होते घोषित
एक भाव होता घोषित
हां रुपया कितना भी बह जाये
ना...ना ...गारंटी कोई नहीं होती
चलकर आऐ है या वाहन से
चलकर जाने जैसी बात ना होती
खर्च करने की ताकत जितनी
सुविधा उतनी
भावताव नहीं होता यहाँ
हर चीज की कीमत वसूली जाती है यहाँ
आधुनिक सुविधा का शोर है
इलाज बाद में डिपोजिट पहले
सीरियस मरीज हो या सांप का काटा
नहीं मुरव्वत यहाँ बस पैसा
जैसा पैसा वैसा इलाज
कैसी सेवा हो गई है आज
अस्पताल, डाक्टर, दवाई और
दूसरी सेवा का पैसा
बस पैसा बस पैसा
धमकी का डोज भी कम नहीं
दायी बाई सब की गिध्द निगाहें
तड़पता मरीज सिसकती आहें
आईसीयू का जलवा और भी
निराला
दरवान दायी बाई सब स्पेशलिस्ट
लगता जैसे यहाँ टीचर हो हर कोई
मरीज और उसके रिश्तेदार
दूसरे ग्रह के अबोध गंवार
दर्द का बोझ पानी की प्यास
टेबल पर सजी पानी की
प्लास्टिक की बोतलें
पीने की आज्ञा मांगना भी
गुनाह जैसा
मार्डन नर्स की दुत्कार गुनाहगार जैसा
हे खुदा ये परमार्थ या कमाई
यहाँ मिलीभगत सब की
अन्दर हो या बाहर
बीमार आदमी के
खिस्से पर होता निशाना
सेवा का यौवन बदल गया है अब
मरीज ग्राहक हो गया है
अस्पताल डाक्टर सौदागर अब
आदमियत की छाती पर खंजर
आदमी पैसा पैसा खेल रहा है
और कब तक ऐसा चलेगा
आदमी आदमियत से कब तक
दूर रहेगा
अस्पताल को अस्पताल रहने दीजिये
ना ढाठी न बीमा बनने दीजिये
दिल खोल कर निरोगी काया कीजिये
दाम तो मिल जाएगा
चाम तो न खींचिए
रोगी और उसके रिश्तेदार भी
आदमी है
आदमियत को गले लगाओ
पैसा तो मिलेगा कोई दुविधा नहीं
सदाचार तो बढाओ ।
डां नन्दलाल भारती ्
19/11/2019
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