कहानी : बहुतै नांच नचायौ
सम्भ्रान्त बाबू ने तो वैसे अपने बेटों के स्कूली शिक्षा के दौरान ही दहेज मुक्त ब्याह करने का एलान कर दहेज दानव के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था। सम्भ्रान्त बाबू का अपने ही घर से दहेज विरोधी अभियान पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। कई दहेज लोभियों की टिप्पणी से सम्भ्रान्त बाबू ही नहीं उनकी अर्धांगिनी सरोज भी विचलित हो गई।लड़के वाले ही नहीं लड़की वाले भी चमड़ी छिल देने वाली प्रतीक्रिया दिये।
खैर आसमान छूती दूल्हा बाजार की महंगाई और व्यापारी सरकार की हड्डियां निचोड़ने वाली नीति की धूप में अस्सी प्रतिशत आबादी का जीवन तपती रेत पर चलने जैसा था इस दौर में कौन यकीन करेगा उस बाप के एलान पर जिसने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए हर तरह के कर्ज़ ले लिये हो।सम्भ्रान्त बाबू वादे के पक्के आदमियत पसंद आदमी थे और मैडम सरोज भी।
सम्भ्रान्त बाबू की आर्थिक स्थिति भले ही कमजोर थी पर सम्भ्रान्त बाबू खुद को मन से अरबपति मानते थे।पर्स में एक हो हजार रुपया, को पांच लाख मानने वाले सम्भ्रान्त,भला आर्थिक रुप से कमजोर कैसे मान सकते थे। सम्भ्रान्त बाबू को अटल विश्वास था कि वे सफल व्यक्ति हैं उनका परिवार दुनिया के बेहतरीन परिवारों में से एक है। उनके सपने खुली आंखों में बसते थे।
सम्भ्रान्त बाबू के सपने उसी दिन साकार हो गए जब बड़े बेटे सज्जनबाबू को कोर्स पूरा होने से पहले ही एक बड़ी कम्पनी में नौकरी मिल गई। सज्जनबाबू डिग्री पूरी होते ही नौकरी ज्वाइन कर लिया। नौकरी ज्वाइन करते ही जाति बिरादरी के लोग ब्याह के लिए सम्पर्क करने लगे। नौकरी मिलते ही दूल्हा बाजार में सज्जन की कीमत और बढ़ गई। सम्भ्रांत बाबू और सरोज मैडम वादे को कतई तोड़ने के मूड में नहीं थे जबकि कई बेटियों के बाप बड़े-बड़े लालच दे रहे थे पर सम्भ्रान्त बाबू का वादा पत्थर की लकीर हो गया था।
कई लड़की वाले तो दहेज मुक्त शादी का नाम सुनकर विदक गये थे। कई तो दूल्हा बाजार में सज्जनबाबू की कीमत आंक कर आफर पर आफर दिये जा रहे और सम्भ्रान्त बाबू थे कि अपनी भीम प्रतिज्ञा पर अडिग थे। दहेज के सख्त खिलाफ थे। लड़की वाले थे कि मानने को तैयार न थे। सम्भ्रान्त बाबू जातिवाद और दहेज दोनों को कलंक कहते थे। आखिरकार सम्भ्रान्त बाबू ने मैरेज ब्यूरो के माध्यम से ब्याह करना निश्चित किया पर यहां भी खतरा तो था पर परमात्मा के उपर छोड़ कर इश्तहार दे दिया गया।
अब तो रिश्तों की जैसे लाइन लग गई कोई देश के इस कोने से तो कोई दूसरे, यहां शादी के बीच दूरी आने लगी। सम्भ्रान्त परिवार के लिए तो दूरी भी समस्या नहीं थी,उनको अगर कुछ चाहिए था संस्कार माता -पिता की गुणवन्ती बेटी जो सरोज की तरह परिवार को संगठित कर तरक्की की राह पर ले जा सके। सम्भ्रान्त बाबू की नौकरी चली रही थी। इंजीनियर बेटा सज्जन नौकरी ज्वाइन कर चुका था दूसरा बेटा सत्यबाबू दिल्ली से उच्च शिक्षा पूरी कर रहा था, उच्च शिक्षित एवं अपने पांव पर खड़ी बेटी शीतल अपनी गृहस्थी में रचबस चुकीं थीं।गाडी बंगला सब कुछ था पर एक अदद सुरक्षा बहू की तलाश थी।
आनलाईन रिश्ते तो बहुत आ रहे थे पर ठोस नतीजा नहीं निकल रहा था। कोई जान पहचान अथवा जिले के रिश्तों का यहां भी टोटा था। आनलाईन तलाश जारी थी।इसी बीच कानपुर से फोन आया और सप्ताह भर के अन्दर मां-बाप अपनी बेटी को लेकर दरवाजे पर हाजिर हो गये । एम. ए. पास मां-रुप कुमारी और बाप युद्ध रतन ने जो अपनी बेटी अनीक्षा की खूबियां बताये वे सारी खूबियां सरोज मैडम से मैच कर रही थी। युद्ध रतन बिन बुलाए मेहमान की तरह घर मे जम गये। जीव विज्ञान मे एमसी,एम.एड.की परीक्षा पास करने एवं होने वाली बहू अनीक्षा ने खानदान की पुरानी बहू की तरह चूल्हा चौकी के काम थाम लिए।ऐसी ही बहू तो इस परिवार को चाहिए थी,अनीक्षा, सरोज को ही नहीं आस पड़ोस की महिलाओं को भी खूब पसंद आई।
अनीक्षा के दिखावटी चाल-चलन, गृहस्थी के गुण से सभी बहुत प्रभावित हुए।शहर से आजमगढ़ तक परिवार के बड़ी बहू की जय-जयकार हो उठी परन्तु असलियत से सभी अनभिज्ञ थे।अनीक्षा जो कुछ कर रही थी वह सब महज ट्रेनिंग का परिणाम था, असलियत जानकर तो पैर के नीचे की जमीन खिसकने वाली थी। यह खेल युद्ध रतन और उनकी अर्धांगिनी रूपकुमारी अपने अल्पवृष्टि और अल्प बुद्धि और फर्जी डिग्रीधारी बेटी अनीक्षा को मोहरा बनाकर खेल रही थी। सरल,सहज एवं आदमियत का पुजारी संभ्रांत बाबू और उनके परिवार लोग युद्ध रतन और रुपकुमारी के ठगी के घिनौने इस खेल से पूरी तरह अनभिज्ञ था।
शातिर युद्ध रतन के छुपम छुपाई के इस खेल को नेक दिल सम्भ्रान्त परिवार नहीं समझ पाया और बिना किसी दहेज के ब्याह हो गया। दहेज की तो कोई बात ही नहीं थी। दहेज न लेने की कसम तो खुद सम्भ्रान्त बाबू ने ले रखी थी। दहेज तो दूर युद्ध रतन ने अपनी बेटी को पहनने के कपड़े तक नहीं दिये थे या देने की औकात नहीं थी या बेटी के प्रति भी नियति में खोट थी।
सम्भ्रान्त बाबू के होश तो कानपुर पहुंचते ही उड़ गए जब रास्ता भटक जाने के बाद खुद सम्भ्रान्त बाबू ने समधी युद्ध रतन को कई बार फोन लगाये पर कोई उत्तर नहीं ......आखिर में दादागिरी के अन्दाज में बेटी का बाप युद्ध रतन ही बोला क्या तुम को रास्ता बताना ही मेरा काम है और भी मेरे पास काम है कहते हुए फोन बंद कर लिया था तब पहली बार सम्भ्रान्त को लगा कि किसी मुसीबत में फंस गए । तोरण के वक्त तो सम्भ्रान्त बाबू बहुत दबाव से गुजर रहे थे। बारातियों के स्वागत में फूल उड़ानें और कुछ को खाली, कुछ को एक रुपए का कुछ को सौ रुपए और लिफाफा थमाने वाले लोग भी अजीब तरह से पेश आ रहे थे। ब्याह के बाद तो स्थिति और डरावनी होने लगी। फेरे के वक्त तो युद्ध रतन सम्भ्रान्त बाबू का हाथ दबाते हुए बोला देखो कुछ गडबड न होने पाए, कानपुर शहर में मेरी इज्जत है,जब ठग को आदमियत क्या होती है,उसे मालूम नहीं था। ऐसा आदमी इज्जत कैसे जान सकता है ? फेरे और सात कसमों की विधि -विधान पूरा होने के बाद तो युद्ध रतन के आदमियों ने बारात को विवाह हाल से खदेड़ कर बाहर कर दिए। घरातियों ने दूल्हा के चारों तरफ घेरा बना लिया, जैसे दूल्हे को घर-परिवार वालों से मिलने की इजाजत न हो।
बारातियों को बाहर खदेड़ कर अभद्र नाच गाना शुरू हो,इस नाच में दूल्हा को जबरदस्ती नचाया गया,दूल्हन तो अपने ठग मां -बाप से अलग तो नहीं हो सकती थी, घरातियों की अशोभनीय डांस पार्टी सुबह तीन बजे तक चली। दूल्हे के खून के रिश्तेदार बेबस भूख प्यासे अपनी इज्जत का जनाजा देखने को मजबूर थे।उपर से बड़ा भारी डर भी था कि कहीं कुछ बोल दिये तो युद्ध रतन दहेज के केस में अन्दर करवाने का डर था, सम्भ्रान्त बाबू जहर के घूंट पीकर वक्त काट रहे थे।
अट्ठाइस अप्रैल का पहला पहर खत्म होने वाला था। कानपुर की गर्मी और डरावना माहौल सम्भ्रान्त बाबू के होश उड़ा चुके थे। बेटी दामाद की गर्मी से बुरा हाल था। सम्भ्रान्त बाबू मूर्छित से एक कोने में लावारिस जैसे पड़े। अनजान जगह था आजमगढ़ का पैतृक गांव पांच सौ से छ सौ किलोमीटर दूर था। तनिक नानुकुर करने पर पूरी बारात के जेल जाने का भी डर था। भयाक्रांत डरावना माहौल था।घराती दूल्हे को अपने कब्जे में किये खाने की टेबल पर बैठ गये,सुबह तीन बजे के उपर का समय रहा होगा,अब खानापूर्ति के लिए सम्भ्रान्त बाबू और परिवार जनों की याद आई।
आतंकित सम्भ्रान्त बाबू और परिवार के लोग दबाव भरे माहौल में मुंह जूठा कर लिए। सम्भ्रान्त बाबू और उनका परिवार अपने ही बेटे के ब्याह में बेआबरू हो रहे थे । दुष्टों ने जाने ऐसा क्या कर दिया कि दूल्हा सज्जन बाबू अपने बाप,भाई और बहन पर आरोप लगाने लगा ।यह सब सम्भ्रान्त बाबू के लिए चुल्लू भर पानी में डूबकर मरने जैसा था।
कहां जाता है बहू और दामाद नारियल जैसे होते हैं,उपर से तो अच्छे लगते हैं अगर अन्दर से सड़े निकल गये तो जीवन का आनंद छिन गया।
सज्जनबाबू किस्मत के इतने धनी नहीं थे। दामाद था तो बहुत पढ़ा -लिखा हुनरबाज भी था पर एक नम्बर का आलसी और नशेड़ी जबकि पहले ऐसा नहीं था। उच्च शिक्षित, हस्तकला में माहिर पत्नी के साथ मारपीट करना, परजीवी जैसा व्यवहार करना उसके मां बाप को कालोनी वालों को बुलाकर गाली देना दहेज की मांग करना दामाद के नीजि शौक बन गये थे। कर्त्तव्यपरायण पत्नी और छोटी अबोध बच्ची को ताले के अन्दर रखना दामाद का शर्मनाक शौक था। नन्ही बालिका के आंसू भी नालायक को टस से मस नहीं कर पाते। नन्ही बालिका रो रोकर कहती नानी हमें और मम्मी को अपने घर बुला लो डैडी घर में लाक कर देते हैं। बहू और दामाद द्वारा निर्मित चक्रव्यूह में फंसे सज्जनबाबू के लिए चक्रव्यूह तोड़ना आसान न था। बेटी के ब्याह में अपनी औकात अनुसार दहेज देकर बेटा का ब्याह कनपुरिया परिवार मे बिना दहेज का कर सम्भ्रान्त परिवार चैन से जी नहीं पा रहा था।
बहू सास-ससुर और उनके परिवार के साथ असंस्कारी व्यवहार तो कर रही थी,घर परिवार में उसे रहना तनिक भी पसंद नहीं था। बात बात पर पुलिस बुला लेती और पूरे परिवार की इज्ज़त का जनाजा निकालती इतना ही नहीं पति यानि सज्जनबाबू के साथ तो उसकी कमाई लूटकर बाप को देने के लिए, मारपीट और बुरा सलूक करती। बेचारा सज्जनबाबू थाने से घर और नौकरी के चक्र में उलझा रहता। कई बार तो नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा। सज्जनबाबू की जबान पर गलती से परिवार,मां-बाप भाई -बहन का नाम आ जाता तो ठग युद्ध रतन और रुपकुमारी की पागल बेटी अनीक्षा दरवाजे पर खड़ी होकर बचाओ बचाओ देखो मार रहे हैं कहकर चिल्लाती और पुलिस बुला लेती। बेचारा सज्जनबाबू मुसीबत की भंवर में बुरी तरह से फंसा हुआ था।ये मुसीबतें संभ्रांत बाबू को चैन से जीने नहीं देती । अंधा कानून था कि ठग बाप की बेटी अल्पदृष्टि, अल्पबुध्दि अनीक्षा के साथ खड़ा था।
दगाबाज युद्ध रतन की बेटी सम्भ्रान्त परिवार की बहू अनीक्षा अपने भविष्य, अपनी औलाद के भविष्य और ससुराल की सुख-सम्वृध्दि को पूरी तरह नजर अंदाज कर चुकी अनीक्षा पति की कमाई तो शुरुआत से डंके की चोट पर लूट कर ठग मां -बाप की तिजोरी भर रही थी। इस लूट के लिए अनीक्षा और उसके मां-बाप -जादू,टोना ,तरह तरह के टार्चर ,अत्याचार सज्जनबाबू पर कर रहे थे।बात बात पर पुलिस बुलाने, झूठे दहेज के केस में पूरे परिवार को जेल की चक्की पिसवाने और फर्जी पत्नी उत्पीड़न के केस में पति को जेल भेजवाने की बार-बार की धौंस ने आखिरकार सज्जनबाबू को मां बाप और परिवार का कट्टर विरोधी बना दिया।
ससुर -सास और पत्नी की ठगी के शिकार होने का जब एहसास हुआ तब तक पांच साल बीत चुके थे। सज्जनबाबू का बेटा देवेश भी तीन साल के उपर का
भी हो चुका था।अनीक्षा देवेश देवेश को अपनी छाती का नाम कभी दूध पिलायी और न कभी देवेश की टट्टी पेशाब साफ की,खुद के अबोध बच्चे की सौतेली मां बन। देवेश को बुरी तरह से पीट भी देती, सज्जन मना करता तो कहती क्या तेरी मां ने पैदा किया है, मैं बदला ले रही हूं, तुम्हारे परिवार के एक-एक आदमी से बदला लूंगी। अपराधी मां -बाप की बेटी अनीक्षा मजे हुए अपराधी की तरह व्यवहार करती थी। अब धीरे -धीरे सज्जन को होश आने लगा पर वह सही निर्णय नहीं ले पा रहा था। इन बीते साल में सज्जन परिवार से बहुत दूर जा चुका था।इस दौरान बेटा के वियोग में रो-रो कर सज्जन की मां की दोनों आंखें खराब हो गई। दोनों आंखों का आपरेशन करवाना पड़ा,छोटा बेटा सत्यबाबू और खुद सम्भ्रान्त बाबू चूल्ह चौंका किये।अनीक्षा न खुद देखने के लिए आई और न सज्जनबाबू को आने, सज्जनबाबू जब मां से मिलने के लिए आने की सोचता अनीक्षा पति उत्पीड़न झूठे केस में पुलिस बुला लेती या सज्जनबाबू को उसके साथ झूठे मारपीट का रोना रोकर पूरी गली की महिलाओं को इक्ट्ठा कर लेती अब सज्जनबाबू के पैर मुसीबत की जंजीर से बंध जाते। इसके पहले भी कई विपत्तियां सम्भ्रान्त परिवार पर आई-सरोज मरणासन्न अवस्था में भर्ती रही। सम्भ्रान्त बाबू भी अस्पताल मे भर्ती रहे,दोनों पति-पत्नी की जान बच गई परन्तु सम्भ्रान्त बाबू के पिता चल बसे,इस विपदा की घड़ी में अनीक्षा झूठे खबर नहीं ली। हमारी विपदा के दिन अनीक्षा और उसके मां -बाप के किसी खुश खबर से कम ना रही होगी। सांस -ससुर का अस्पताल से स्वस्थ लौटना यकीनन बुरी खबर रही होगी।
सज्जनबाबू को पत्नी और उसके मां -बाप की प्रताड़ना बहुत दुखी कर रखी थी, पत्नी पीड़ित सज्जन चोरी -छिपे बात तो कर लेता पर सज्जन का मां -बाप से बात करना भी प्रताड़ना का विषय बन जाता। कानपुर से अनीक्षा का बदमाश बाप सज्जन को फोन पर धमकाता और कहता बहुत मां -बाप वाले बन रहे हो। न तो अनीक्षा को सज्जन से कोई मोहब्बत ना उसके मां -बाप को, इन दुष्टों को मोहब्बत थी सज्जन की तनख्वाह और एक करोड़ रुपए के जीवन बीमा से। इन रिश्ते के दुश्मनों की निगाह एक ओर और टिक रही थी वह था सम्भ्रान्त बाबू की एक मात्र दौलत उनका बंगला।
पागल बहू अनीक्षा की वजह से सम्भ्रान्त बाबू और सरोज की जिंदगी में दुख भर चुका था। नातिन की दुःख भरी आवाज-नानी हमें और मम्मी को अपने घर ले चलो, डैडी हमें और मम्मी को लाक कर देते हैं। दामाद को अपनी ग़लती का एहसास तो हुआ परन्तु विश्वास की परतें जम नहीं रही थी, रह-रहकर संभ्रांत बाबू और सरोज मैडम का दिल दहल जाता । बेटा सज्जन का दुःख बर्दाश्त से बाहर था,पर एक आशा की किरण नजर आने लगी थी वह भारी दबाव में भी नन्हा पोता देवेश सगी परन्तु सौतेली मां से भी खतरनाक मां अनीक्षा की कैद में भी दादाजी -दादीजी की जय-जय करने लगा था।यह सम्भ्रान्त बाबू और सरोज के लिए बसन्त की बयार की तरह सकून का एहसास था। इसी बीच सम्भ्रान्त परिवार में एक और बहू का शुभागमन हुआ।इस बहू से संयुक्त परिवार को बड़ी उम्मीद थी पर निराशा हाथ लगी।यह नई बहू के मायके से दहेज में मामूली नगदी के साथ ढेर सारे स्टील के बर्तन के साथ डबलबेड,सोफ़ा, टीवी,कुंवर,फैन, वाशिंग मशीन एवं अन्य छोटे मोटे सामान दहेज में लाई थी।इस नई बहू ने सिर्फ वाशिंग मशीन को अपने बेडरूम के बाहर छोड़ा बाकी सारा सामान अपने बेडरूम के टांडा, आलमारी में पैक कर लिया। सोफ़ा कुर्सी टीवी अन्य सामान अपने बेडरूम में सजा। इसके बाद भी यह बहू अनीक्षा से बेहतर थी क्योंकि अपने पति के साथ सास-ससुर का ख्याल अच्छी तरह रखती थी लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों के साथ परायापन अवारा बादल की तरह गरज पड़ता। इसके बाद भी खुश थे मन ही मन कहते चलो भैया भाभी का बहू ध्यान रखती है।अनीक्षा तो अपने पति के साथ बेवफा थी।पति को लूटकर सांस ससुर को अमीर बनाने का भूत उस पर सवार था।
धूप के बाद छांव आती है,वक्त करवट बदला। युद्ध रतन ने जो अपनी अल्पदृष्टि, अल्पबुध्दि बेटी अनीक्षा को मोहरा बनाकर दमाद को लूटकर खड़ी इमारत रेत की दीवार की तरह ढह गई । प्रकृति ने दूध का दूध पानी का पानी कर दिया। दामाद को परिवार से अलग करने वाला युद्ध रतन भीखारी हो गया । जिस सम्भ्रान्त बाबू का कत्ल बदमाश युद्ध रतन करवाने की धमकी दे रहा था,उसी सम्भ्रान्त बाबू ने अपराध की आग में जल रहे युद्ध रतन की ओर आदमियत का हाथ बढ़ा दिया।
अनीक्षा वहीं अनीक्षा कनपुरिया बहू,सास-ससुर के मौत की दुआएं करती थी, परिवार की बेटियों को सोशल मीडिया बेआबरू करती थी, अपहरण करवाने की धमकी देती थी, परिवार की बर्बादी की हर चाल चल रही थी,पति को प्रताड़ित कर उसकी कमाई लूटकर बाप को अमीर बना रही थी, बाप का प्राकृतिक न्याय का डण्डा पड़ते ही वहीं अनीक्षा एकदम बदल अब पति को परमेश्वर मानने लगी थी।
अनीक्षा में आते बदलाव से सज्जन अचम्भित था। वह अनीक्षा और देवेश को लेकर मां-बाप की शरण में पहुंचा।
अनीक्षा सरोज मैडम का पांव पकड़ कर बोली मम्मी माफ कर दो।
सरोज मैडम बोली अनीक्षा याद रखो मायके से बोली उठती है ससुराल से अर्थी। तुमने अब तक जो किया है मायके के लिए किया है। ससुराल से बदला लिया है। तुमको अपनी ग़लती का एहसास हो गया है तो अपनी गृहस्थी संवारो। तुमने अपने मां -बाप की खुशी के लिए अपने पति सास-ससुर और परिवार को खून के आंसू देने के सिवाय और क्या दिये है। मैं कौन होती हूं तुम्हें माफ करने वाली।
धरती के भगवान हो मम्मी पापा जी अनीक्षा बोली।हम शैतान लोग भगवान कैसे हो गए सरोज मैडम बोली।
हमारे मां -बाप शैतान थे, उनकी लंका राख हो गई बाप मुझे अंधेरे में रखकर अपना मतलब साधता रहा वहीं बाप अपने कर्म की वजह कण्डे से आंसू पोछ रहा है। माफ कर दो मम्मी अनीक्षा बोली।
आंसू पोंछे हुए सरोज मैडम बोली- अपनी गृहस्थी संवारो। अब तक तुमने
बहुतै नांच नचायो रे बहुरिया।
नन्दलाल भारती
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