कविता: बसन्त ऋतु
नन्दलाल भारती
प्रिये तुम्हें देखा तो लगा
जैसे
बसंत ऋतु है आयी
बावरे ना बनो प्रियवर
देखो सरसों है शरमाई
मटर की मुस्कुराहट
देखो
बसंत ऋतु है आयी......
गेहूं की सरसराहट
सरसों की लुभावनी शर्माहट
बसंत की तो आहट
जौ की देखो अंगड़ाई
कोलहाड़ की मीठी फिजा
गुड़ की लुभावनी मिठास
जाग गयी प्यास
फूल नीले-पीले रंग-बिरंगे
यौवन में नहाये
खेतो की देखो तरूणाई
प्रिये तुम्हारे पयजनिया की
छन-छन,छन
लुभाये मन-मन
जैसे ब्याह की बजे शहनाई
प्रिये बसन्त ऋतु है आयी.........
प्रियवर देखो,
कोयलिया मदमस्त बौरायी
मतवाले हुए
आम-जामुन-महुवा निबिया
भंवरे मतवाले, प्रेम धुन रहे सुनाई
ओढ़ चदरिया धरती हुई बसन्ती
खेत सजे जैसे दुल्हनिया
अपने मन की मौज है
बन आई
प्रियवर बसन्त ऋतु है आयी.........
प्रिये अपना मन हुआ बावरा
सोचे रुपहला
अपनी जहां में बस जाएं
बसंत स्थायी
मिट जाये अपनी जहां से
भेदभाव की काली परछाई
नहा जाये बासन्ती रंग में
अपनी दुनिया
जग में छा जाये पुरवाई
मुस्करा उठे अपनी दुनिया
जैसे
गौने पर थी मुस्कायी
प्रिये बसन्त ऋतु है आयी......
नन्दलाल भारती
16/01/2023
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