बूढ़ा आदमी
बूढ़ा आदमी गंवाया जिसने उम्र
घर-परिवार को जमीं से आसमां तक पहुंचाने में
क्या चाहिए उस बूढ़े आदमी को नई पीढ़ी से ?
शायद कुछ नहीं, बूढ़े आदमी के पास,
देने के लिए तो बहुत कुछ है,
कांपते हाथों, लड़खड़ाते पांव से भी
वह खींच लाना चाहता है,
दुनिया भर की खुशियां
संजोयी पीढ़ी की झोली में डालने के लिए
हाथ भी उठाता है प्रार्थना में
खुद के लिए नहीं अपनों के लिए
यही है बूढ़े होते आदमी की फ़िक्र अपनों के लिए
अपने दुश्मन बड़े सकूं की रोटी भी देना चाहते
बूढ़ा आदमी बस देना जानता है
उसके हाथ में उम्र का अधिकार होता तो
बांट देता अपनों के बीच उम्र भी
जरूरत पड़ने पर खुद का
निकाल कर कलेजा रख देना चाहता है
अपनों के हाथ पर
वाह रे अपनों का परायापन
बूढ़े आदमी के पैरूख हारते
आंख की रोशनी में अंधेरा आते ही
घूंटनो के शरीर का बोझ उठाने से इंकार करते ही
छोड़ देते हैं सड़क पर,
निराश्रित का ठप्पा माथे पर ठोक कर
अपनी ही जहां से थके आदमी पहुंच रहे हैं
वृद्धाश्रम या निराश्रित आश्रम
बेघरबार होकर
भला हो आश्रम चलाने वाले
धरती के महामानवों का
दे देते हैं वो सम्मान जिसे बूढ़े आदमी को,
उम्मीद थी अपने पाले पैसे, अपने से
अपनों से निराश्रित होकर
आश्रम रख रहा है ख्याल
कर रहा हर जरूरी इंतजाम
लाचार बूढ़ों की बढ़ रही तादाद आश्रम में एक
करना था जो सगे अपनों को
उम्र के आखिरी पड़ाव पर बूढ़े आदमी
जी रहे आश्रम मौत के लिए
दुर्भाग्य है उन दुश्मन बने अपनों का
दुआये जो बरसनी थी अपनों के लिए
वही बरस रही है अब आश्रम और
आश्रम के सेवकों के लिए।
नन्दलाल भारती
१८/०१/२०२४
(यह रचना निराश्रित आश्रम के बुजुर्गो से मिलने के बाद लिखी गई है, लिखते समय भी पलकें गीली हैं)
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