चन्दे का कफन
वकील साहब,पढ़े-लिखे तो नहीं थे पर गांव वाले वकील कहते थे,उनका असली नाम कहने सुनने से गुम हो गया था।
पश्चिम बंगाल में एक विश्व प्रसिद्ध मोटर कम्पनी में मजदूर थे। पूरे गांव में क्या जाति ? क्या जाति ? क्या प्रजाति ? समझदारी और ज्ञान के मामले में वकील साहब जैसा कोई नहीं था।
कप्तान काकी भी वैसी महिला थी,उनके भी असली नाम से ज्यादातर लोग अनभिज्ञ थे।दो बेटे थे, दोनों कुछ पढ़-लिखकर नौकरी धन्धें में लग गए थे ,बहूये भी काकी की तरह गांव में रहती थी।
वकील साहब रिटायरमेंट के बाद बड़े बेटे की जिद के अनुसार घोड़ा-इक्का खरीद कर दे दिये थे।
वकील साहब का लगभग नब्बे साल की उम्र में परिनिर्वाण हो गया था। बेटे मां-बाप के दुःख -सुख और मौत तक के खर्चे से दूरी बनाए रहते थे। वकील साहब की मौत कप्तान काकी के सामने हुई थी, काकी ने दवा-दारू और अन्तिम संस्कार तक के खर्चे बड़ी मुश्किल से उठाया था पर सामाजिक प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आने दी थी।कंसनुमा दोनों बेटे आंख मूंदे हुए थे।
वही लगभग पंचानबे की उम्र में कप्तान काकी का परिनिर्वाण हुआ था पर बहू-बेटो ने बहुत दुर्दशा कर दी थी,बड़ी बहू ने तो मारपीट कर काकी का कूल्हे तोड़ दिए थे।
काकी के अन्तिम संस्कार के लिए बड़ा बेटा दो कण्डे दूसरे ने दो अगर बत्ती सुलगा दी थी बस, कफ़न आदि गांव वालों ने पूरे गांव से चंदा लेकर किया था। काकी की शवयात्रा से पहले दूर गांव से काकी के भाई को पता लगा वे आये,और अपनी बहन का अन्तिम संस्कार गाजे बाजे से किये, गांव वाले काकी के भाई को सलाम कर रहे थे, बेटों के मुंह पर थू-थू कर रहे थे।
नन्दलाल भारती
०१/०६/२०२४
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