अपनी जहां का अलग ही दस्तूर है
दमित को दण्डित कर आनन्दित भरपूर है।
दर्द को अमर बनाने में जुटी है रात दिन
हाशिये का आदमी तड़प रहा है जैसे
जल बिन मीन ।
दमित आदमी भले ही हौशले की उड़ान से
छू लिया हो आसमान नहीं मिलता है
हाशिये के आदमी को सम्मान ।
जातीय मोह में सुलग रही
अपनी जहां में आदमी को
आंकने का फारमूला निराला है
जबान पर तनिक मिठास
मन में रखते हाला है ।
कब मिलेगा छुटाकारा जातीय नरक से
कब हाशिये का आदमी जी सकेगा गर्व से ।
फिक्र में अदना रोज रोज मरता है
मान के लिये अपमान सहता है।
दबंगों की महफिल से अदना
उजली पहचान वाला आदमी
फेंक दिया जाता है जैसे सिर से जू
मिल जाजा है श्रेष्ठता का खिताब
दहाड़ उठता है द्रोणाचार्य फिर।
अदना अपनी जहां कि ‘ाुरूआत से
संघर्षरत् है
ना वह हार मान रहा है
ना दौलत के पीछे भाग रहा है
हाशिये के आदमी को सम्मान
दमित आदमी संघर्षरत् है सदा
गढ़ने को पहचान ।
डां नन्दलाल भारती
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