धरती का श्रृंगार/नन्दलाल भारती
बाबूजी कभी हरा भरा रहती थी,
गांव की धरती
इतराती थी अपने यौवन पर
खरीफ और रबी के कहने कहते हैं ना
सावन के भैंसे को सब हरा दिखता है,वाली कहावत
गांव का जीवन भरा सरसों के खेत जैसा
बेटियां भी जाती थी ससुराल
हरियाली-खुशहाली का,हरा-भरा संकल्प
गांव के पोखरी तालाब रहते थे जल-मगन
पानी वाली पंछियां लगाती गोते पर गोते
झुरमुटों में बसने वाली पंछियां करती जलक्रीड़ा निडर
पोखरी-तालाब में पलती मछलियां
गांव वाले करते शिकार बेखौफ
मिल बांटकर भक्षण थे करते मछलियां
खिस्से भी गरम कर लेते थे
कुओं का निर्मल पानी मौसम बदलते
बदल लेता तासीर अपनी स्वच्छ
बदल चुका है सब अतिक्रमण से अब
ना बची है गांव समाज की धरती,
अबैध कब्जा करते धीरे-धीरे बाबूजी
गांव समाज की धरती हो है लापता नक्शे से
पहुंच और पैसे वालों की मिल्कियत
अठखेलियां खेलने वाले धरती के
श्रृंगार मार दिये गये हैं,बेरहमी से ढाठी देकर
गांव जहां दरवाजे का होता था गहना
बैल जोड़ी दो जोड़ी गाय -भैंस भी खूब
गायों की होती छनौरी,वहीं गांव अब पशु विहीन
यही है पोखरी का सिसकता दर्द बाबू जी
पाट-पाटकर बन गये हैं या बन रहे हैं अटारी बेखौफ
पोखरी के किनारे झूमते पेड़ पौधों पर
चल रही है कटारी खूब निडर
बचे-खुचे पोखरें तालाब बन रहे हैं
शहरों जैसे विषैले नाले बाबू जी
कुयें हो चुके हैं समतल,हैण्ड पाइप भी खत्म हो रहे हैं
प्राकृतिक संसाधनों की हो रही है गलाघोंट हत्या
गांव में खूब गरम है एसी-कुलर का व्यापार
गांव -गांव बिछने लगी है जल-वितरण की पाइपें
खड़ी होने लगे हैं पानी उगलने वाली टूटियां
भूमिहीन आज भी भूमिहीन पडे हैं सिसकते
सरकारी नक्शे से लापता हो रही है
गांव समाज की धरती बाबूजी
प्रतिनिधि बहुमत के मतलब में साध हुए हैं मौन
हो रही है बेखौफ प्राकृतिक संसाधनों की हत्या
अफसर नोट की लालच में खेल रहे हैं
लेन- देन का घिनौना खूब खेल बाबूजी
ना पहले वाला गांव रहा ना बचने वाली है विरासत
ग्रामीण जीवन के हिस्से आ गई है आफत
जरुरत है अब सच्चे धरती पुत्र प्रतिनिधि की
लौटा सके जो गांव की धरती का श्रृंगार
गांव की धरती कर रही है पुकार बाबूजी
प्रतिनिधि की ऐसे जरुरत अब बचा सके
जो धरती का लूटा पुराना विहसता श्रृंगार
भूमिहीनों को भी कर दे आबाद
विहसती रहे गांव की विरासत..... हां विरासत बाबूजी....... विरासत
नन्दलाल भारती
दिनांक २१/०५/२०२४
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