दूसरों की खुशियां खा जाते हैं
कहावत है
सच भी है एकदम खरे सोने की तरह
सौ टका श्रीमान,
कुछ लोग खाने के इतने शौकीन होते हैं
कि
वे दूसरों की खुशियां खा जाते हैं,
ऐसे लोग भी होते हैं
इसी दुनिया में अपने आसपास भी
मैंने तो देखा है
दूसरों की खुशियां चरते हुए नरपिशाचों को
समाज से श्रम की मण्डी तक
ये शैतान इतने निडर होते हैं
कि
दूसरों की खुशियों की बाट लगा देते हैं
जीना मुश्किल कर देते हैं
समाज में रुप बदल बदल खा रहे हैं
श्रम की मण्डी के वातानुकूलित कक्ष में भी बैठकर
खा रहे हैं,खाये जा रहें हैं बस
सावन के भैंसें की तरह
कुछ तो इतने ढीठ होते हैं कि,
गैरों की शोषितों -पीड़ितों की,
खुशियां खाने में इनको मजा आता है
मुखौटे बदल बदल कर
सावन के भैंसें की तरह,
कुछ बहुरूपिए लोमड़ीनुमा
खाल बदलने में माहिर होते हैं
दूसरों की खुशियां खाये जा रहे हैं
कुछ धोबी के नील पात्र में रंगे सियार की तरह गुर्राते हैं
कमजोर, मेहनतकश,शोषित की खुशियां हड़प जाते हैं
कुछ कोबरा की तरह फुफकारते हैं
ऐसे खुशियां खाऊं नरपिशाचों से आपका पाला पड़ा होगा श्रीमान,
गांव देहात, शहर,और श्रम की मण्डी में
वातानुकूलित दफ्तरों में बैठे कुछ अफसर के चोला ओढ़े शैतानों से भी
समझते हैं वो, संस्था उनकी वज़ह से चल रही हैं
विदा होने पर कौड़ी के तीन हो जाते हैं
ऐसे खाऊ लोग,
किन किन का नाम लूं
आप भी कई खाऊं खलनायको को जानते होंगे
मैं तो जानता हूं
कुछ तो मेरे सपने खा गए श्रीमान
चरित्रावली पर कालिख पोत दी कुछ ने
एक गब्बर शैतान ने चरित्रावली में वेरी लेजी आफिसर लिखकर,
कर दिया खुशियों का दहन
मानो या न मानो श्रीमान
आज भी जीवित हैं,
दूसरों की खुशियां खाने वाले नरपिशाच।
नन्दलाल भारती
२८/१०/२०२३
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