जीवन बचाओ।
मेरा घर अब मेरा ही नहीं रहा
अब कुछ पंक्षियो का,
बसेरा भी हो गया है
मेरा घर,
यह अपना गांव का,
पैतृक माटी का महल तो नहीं है
जिस माटी के महल के,
स्थायी निवासी गौरैया हुआ करती थी
मुंडेर पर भांति -भांति के परिंदे ,
जश्न मनाया करते थे,
अगवारे -पिछवारे के पेड़-पौधों पर
लगे फल-फूल खाकर
कौवे का बोलना पाती हुआ करता था तब
मेहमान के आने की पूर्व सूचना
अ-लिखित थी
सच भी हो जाता था।
गांवों की पहचान माटी के घर
माटी में मिल चुके हैं
ईंट- पत्थरों के दो-तीन या अधिक तलों के,
बिल्डिंग खड़े होने लगे हैं,
बचे -खुचे माटी के घर ढह रहे हैं
या घरों में,
लटके ताले सड़ रहे हैं।
खुशी की बात है
गांव की खूशबू अभी बाकी है
खेत की सोंधी गमक अभी ताजी है
पेड़ -पौधे बंसवारी भी सांस भर रही है,
शहर जैसे हालात तो नहीं है
शहर की एक बस्ती में हजारों मकान हैं
पेड़ नदारद, कौवा और परिन्दो को
जगह कहां ?
हवा में धूल -धुआं और जहरीली गैसें
भरी पड़ी है
शहर में एक अच्छी शुरुआत हो चुकी है
गमलों में जंगल पनपने लगे हैं छतों पर
और मेरी छत पर भी
पत्नी और बेटे ने बना दिया है
बगीचा और सब्जियों की क्यारी भी
छत पर ही,
लगने लगे हैं फल-फूल सब्जियां भी
परिन्दो को मिलने लगा है
भोजन -पानी और ठांव भी
मैं भी खोज लेता हूं
गांव के पेड़ -पौधो जैसा सकूं
और
आत्मतृप्ति का सुख भी।
काश ऐसी ही हरियाली से सज जाती
शहर की सभी छतें भी
बहुत कुछ कम हो जाता प्रदूषण
हवा में बढ़ जाती आक्सीजन
हो जाता छत और हरियाली का उद्गम
नई और पुरानी पीढ़ी का संगम
निखर जाता पर्यावरण
बढ़ जाता जीवन,
आओ अच्छी उम्र की लालसा रखने वालों
पेड़ -पौधे लगाओ,
जमीं नहीं हिस्से तो छत पर उगाओ
पर्यावरण बचाओ, खुद का जीवन बचाओ।
नन्दलाल भारती
१६/१०/२०२३
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