लघुकथा :कलयुग का भाई
अरे प्रफुल भाई चारों तरफ रंग-ग़ुलाल उड़ रहा है l लोग रंगोत्स्व नाच-गा रहे हैं, होली का त्यौहार साल में एक दिन आता है l तू उदास बैठा सोफा तोड़ रहा हैl किस की इंतजार हैं ? कहते हुए गिरीश भाई ने प्रफुल का चेहरा ग़ुलाल से लाल कर दिया l
गिरीशभाई के माथे पर नीली अबीर का टिका लगाते हुए प्रफुल बोले होली मुबारक दोस्त l
कैसी चल रही है होली गिरीश पूछे?
झकास है भाई l
बढ़िया वाह क्या बात ? भाई साहब कहा हैं गिरीश पूछे?
कौन भाई?
गांव वाले भाई साहब आये हैं ना गिरीश बोले?
ना वो भाई रहे ना वो भैय्यपन l नौकरी गई तनख्वाह गयी l मेरे पास क्या बचा है कि अब आएंगे l बेटा-बहू से के पास बीस दिन पहले आये थे,उन्हीं का इंतजार कर रहा था, अभी-अभी खबर लगी है कि वापस चले गए l
तुमसे बिना मिले गिरीश भाई बोले l
हाँ भाई उन्हें कहाँ जरुरत है l चालीस साल से हम दोनों माँ-बाप की तरह छाँव बने रहेl बेटवा को नौकरी क्या मिली आसमान पर थूक रहे l
प्रफुल्ल भाई ये तरक्की की इमारत तो तुम्हारी और भाभी के त्याग से खड़ी हुई है l तुम और भौजाई माँ-बाप नहीं बनते तो वही गांव मक्खी मक्खी मारते l वाह रे कलयुग के भाई दीपचंद क्या सिला दिए इतने बड़े त्याग का?
नहीं भाई हम लोगों ने कुछ नहीं किया है l सब कुछ दीपचंद भाईसाहब के बेटा-बहू ने किया है l
सब कुछ तुमने किया ताज बेटा बहू के सिर l घमंड बहुत बुरी बात है l लगता है भैय्यपन की दरार नई-नई पड़ी है गिरीश भाई बोले l
हाँ भाई l भैय्यपन का जनाजा निकाल चुके भाई साहब की नई-नई अमीरी भी l
जी प्रफुल्ल भाई,तभी तो मतलब निकलते ही बैरी हो गए गिरीश भाई बोले l
अधिकारी बेटा के बाप दीपचंद भाई साहब को उनकी अमीरी मुबारक l हमें हमारा त्याग-कर्म,भाई गिरीश तुमको भी रंगों कर त्यौहार बहुत-बहुत मुबारक I
खुश रहिये, चिंता मुक्त रहिये प्रफुल्ल भाई बहुत-बहुत शुभकामनायें l
नन्दलाल भारती
14/03/2025
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