ये खत तुझे लिख रहा हूं
ये कैसी सत्ता हो गया
अविश्वास होने लगा है
तू है तो दर्द का एहसास होगा
बताओं आराधना में कमी कहा रह गयी
श्रम में कहां पीछे हटा
कर्म के पथ पर कहां फेल हुआ
फर्ज पर फना होने में कहा कमी रह गयी
श्रम और कर्म के पथ आंसू झरे
आज भी झर रहे निरन्तर
तुम्हां बताओं दण्ड क्यों बार-बार
ये नसीब का कत्ल या कोई प्रहार
क्यों कैसी रार है
जीवन पथ पर पग-पग पर ‘ाूल
अब और ना लो अग्नि परीक्षा
तुम्हारी सल्तनत में हिस्से की
जीत को हार का कलंक
आसूं पीकर जीता है लहूलुहान आदमी
तुम्हे कैसे बर्दाश्त होता है
निरापद को दण्ड कैसे भाता है
रंग रूप बदलकर धोखा देने वालो का
तू ही है ना
ये बहुरूपिये छल बल से
हाशिये के लोगों का हक हड़प रहे है
हाशिये के लोग आसूं पीकर जी रहे है
तू है कि मौन है
कैसा न्याय है कैसी सल्तनत
सत्ता कीं अंधी आंखों से दर्द नही दिखता
तू है सचमुच तेरी सल्तनत है तो
अपना जौहर दिखा
कर्म-श्रम को पहचान दो
फना होने वालों का मान दो
जातिवाद की लकीर को धो दो
हो सके तो खत का जबाब देना
जर्जर कश्ती के सहारे
तेजाब का दरिया पार कर रहे
अदना को पहचान देना
ये खूं के कतरे-कतरे से
लिखा खत समझना
थोड़ा लिखना ज्यादा समझना
खुदा गांड भगवान
डां नन्दलाल भारती
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