Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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ख्वाहिश

 
ख्वाहिश
इंसान हूं मैं
इंसानियत मेरी रूह में सजती है 
बड़ी-बड़ी कसमें भी खा लेता हूं
सब कुछ झूठा-झूठा सा लगता है
क्योंकि 
मैं हूं कि इंसानियत को नहीं
इंसान की जाति को
तवज्जो देता हूं  ।
दुर्भाग्यवश जो चतुर इंसान ने बनाई है 
इंसान को वश में रखकर
फूट डालो राज करो कि,
अमानवीय नियति से 
कागा-चतुराई ने बंद कर रखा है
खुला आसमान अपनी मुट्ठी में 
इंसान जातीय श्रेष्ठता के नशे में
इंसानियत को कर रखा लहूलुहान।
बतौर इंसान  मिटा देना चाहता हूं
जाति की डरावनी मीनारें
आजाद हो जाना चाहता हूं
जाति के चंगुल से अब
जो मुट्ठी में कैद कर रखा था
अपने हिस्से का आसमान।
मैं मुक्त होना चाहता हूं
जातिवाद की बदबूदार 
और 
मैली चादर से
जो इंसान के वजूद को ही निगल लिया है
इस अजगर के मुंह से निकलना चाहता हूं
घूंट -घूंट कर मर रहा हूं
जातीय ऊंच-नीच के अवैध नियम-कानून ने
जकड़ रखा है,
विज्ञान के युग में भी, 
ढीली नहीं पड़ रही है पकड़
मैं उन्मुक्त होना चाहता हूं
ऊंच-नीच की मीनारें तोड़ देना चाहता हूं।
जीवन का सबसे बड़ा गम 
कोई है तो वह है 
जातिवाद......जातिवाद......जातिवाद 
इस गम से मुक्त होना चाहता हूं
दुर्भाग्यवश 
इंसान ही उतार देता है
जातीय खंजर ख्वाहिशों के धरातल पर
हिस्से का आसमान रह जाता है 
सू्ना और बंजर बार-बार
आहत हूं पर इंसान हूं
खुलकर जीना चाहता हूं
बतौर इंसान 
सारी जातीय बंदिशों को तोडकर
देखना चाहता हूं जातीय नफ़रत से परे
अपने हिस्से का आसमान
यही ख्वाहिश है ...ख्वाहिश है ख्वाहिश है ।
नन्दलाल भारती
15/02/2023



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