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Dr. Srimati Tara Singh
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लगाव

 
कविता: लगाव
क्यों असहाय सा लग रहा हूं
उम्र बढ़ रही है 
क्या यही वज़ह है ?
जिन्दगी के प्रारब्ध विपरीत लग रहे हैं
शब्द व्यथित हो रहें हैं
स्वप्न जो थे सुहाने
आज वही डरा रहे हैं
शब्द जिह्वा में चिपक रहे हैं
लग रहा जीत कर भी  हार आया
जिन्दगी के समर से
संषर्षरत जीवन में
किस किस ने जख्म दिये
रिसते जख्म का भार उठाते
कहां कहां टकराया मैं
उम्मीद में जीत रहा
अच्छे दिन आयेंगे
बस इसी तमन्ना से 
जीने की अभिलाषा को
तरासता रहा 
जख्म भर जाये
समय कुछ कर जाये भला सा
मगर
जिन्दगी में और भी ठोकरें
ना उम्मीद थी कभी
वायदा है अपना भी 
ना बनेगी जिन्दगी मजबूर अपनी 
प्रिये मत हो उदास
हम तुम है पास
यही ताकत हमारी 
जीयेंगे अच्छे पैगाम लेकर
लेंगे विदा अपनी जहां से
आदमी का आदमी से लगाव देकर।

नन्दलाल भारती
३०/०७/२०२३

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