मैंने कहा था।
मैंने कहा था मां-पिता से
नाम रोशन कर आऊंगा
मंजिलें या ना मिले ....?
पार तो उतर जाऊंगा
तथास्तु
दोनों ने साथ में कहा था
फिर क्या?
चल पड़ा था
जीवन के सफर पर
फिक्र को माथे से झटकता
सब कुछ ठीक होगा कहता ।
सच जीवन सफर कठिन है
पग-पग पर धोखे
और
शिकारी बैठे हैं
अदृश्य जाल बिछाते
निकल गये तो सिकन्दर
नहीं निकल पाये तो अभिमन्यु ।
मैं अपने सफ़र का
क्या बयान करूं,
सफर में ज़ख्म,धोखे
भेद का दहकते दंश मिले
कत्ल के इरादे से
कई नकाबपोश मिले
कत्ल हुआ सपनों का घोर
मरते सपनों का अनगुंज रहा शोर।
मरे हुए सपनों के बोझ से
आज भी कंधे भारी है
हर हार कुछ सिखाती है
जीत होगी एक दिन
पक्की उम्मीद है
अच्छे दिन आयेंगे
कैद नसीब जाग जायेंगे
विश्वास है..... विश्वास है ।
विश्वास है ताकत हमारी
नेककर्म, नेकनियति की
मूठ थामे
मैंने जो कहा था,वहीं जी रहा हूं
मरते हुए सपनों के बोझ से
आज भी कंधे है भारी
हार कैसी,बस अनुभव
जीत का जनून है भारी
सफर है जारी, सफर है जारी।
नन्दलाल भारती
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