लघुकथा:मंगलकामना
बाबूजी रुक क्यों गए ?
पुरानी यादें ताजा हो गई बेटा ये खण्डहर देखकर।
कैसी यादें बाबूजी?
ग़रीबी के दिनों की ।
खण्डहर को देखकर बाबूजी ?
हां बेटा यह खण्डहर किसी समय आसपास के गांवों की राजधानी हुआ करता था। क्षेत्र के बड़े -बड़े साहब -सुब्बा हवेली की शोभा बढ़ाते थे। मेरे माता-पिता पसीना।
पसीना क्यों ?
बंधुआ मजदूर जो थे। सुबह झलफलाहे हवेली आना और देर रात तक बाबूजी की घर वापसी दिनचर्या थी। मां रुखा-सूखा लेकर बैठी रहती थी, बाबूजी के खाने के बाद खुद खाती थी। जमींदार हाड़ निचोड़ लेते थे बदले में सुबह से रात तक की दो सेर अनाज की मजदूरी। जमींदारन कभी अच्छे अनाज की मजदूरी नहीं देती थी, कभी -कभी मां रोती हुई मजदूरी लेकर आती थी।
कैसे अमानुष जमींदार थे । चाण्डाल जमींदारन मेहनत की मजदूरी में सड़े अनाज, गांठ भूसा और कंकड़ मिला कर देती थी।
हां बेटा शोषक समाज मेहनतकशों को आंसू देकर ही फलाफूला है।
तभी तो सर्वनाश हुआ है, हवेली खण्डहर में तब्दील हो गई, कोई दीया जलाने वाला नहीं।
हां बेटा काश ये हुक्मरान, जमींदार लोग मेहनतकशों को आदमी समझें होते तो इतना बुरा पतन नहीं होता।
हक छिन कर आंसू देने वाले किसी युग में आबाद नहीं रहें हैं बाबूजी। दादा-दादी के आशीर्वाद से अपनी हवेली ईमानदारी की नींव पर खड़ी हो गई है।
हां बेटा तुम लोग नौकरी करने वाले नहीं, नौकरी देने वाले बनो, प्रगति के पथ पर आगे बढो, गरीब शोषितों का भला करो।स्वस्थ और सुखी रहो ...... यही मंगलकामना है।
नन्दलाल भारती
25/01/2023
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