गांव विरान हो रहे हैं
धरती बंजर सी लगने लगी है
वो घर जहां पनपती थी यादें
पीढ़ियों पुराने पुरखों की
संवरते थे खून के रिश्ते
गूंजा करती थी विरासतें
गांव के घरों से उठा करती थी
लोरी किस्से सोहर की
मधुर स्वर लहरियां
तीज त्यौहार के दिन
गांव के घरों से तितलियों सी गीत गाती
तालाब पोखर की ओर बढ़ती थी
गांव की आन मान शान लड़कियां
पवित्र स्नान के लिए
वही पोखर तालाब अपवित्र हो चुके हैं
गांव के घर रोज रोज मर रहे है
गाँव विस्थापित हो चुका है
आकी बाकी भी हो रहा हैब
शहरों की भीड़ में
गांव में बचे है तो बार बार
चश्मे साफ करते हुए लोग
इंतजार में ताला जड़े मरते हुए घर
जातिवाद चट कर रहा सर्वस्व
सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
हो चुके है बेखबर
गांवों का देश खतरे में है
सरकारें ब्यस्त है दिन साल का
जश्न मनाने में और कागजी घोड़े दौड़ाने में
काश सरकारें और जातिवाद के ठेकेदार
उबर जाते अपने गुमान से
बच जाते नित मरते घर
विकास की बयार जुड़ जाती
विरान होते गांव से।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
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