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मौत का इंतजार करता आदमी

 
मौत का इंतजार करता आदमी

ये वक्त के बदलाव का चोट है 
या 
अपने ही लहू की नीयत की खोट
मौत का इंतजार करता आदमी
कलेजा थामें,ढो रहा है, दर्द 
वह भी पैदा हुआ था एक दिन
मां-बाप की मन्नतों के बाद
छ: दिन सोहर गाये गये थे
बदलते वक्त में मौत का इंतजार कर रहे ,
आदमी का हुआ था ,
आज के युवाओं की तरह जन्म।
अरमान थे,होना भी चाहिए
औलाद आंख ठेहुना बनेगी
नाती पोतों के सुख का आनंद मिलेगा
उम्मीद में इसी उसने सब लगा दिया था
औलाद के भविष्य पर दाव
जीतकर भी वह हार चुका है
हारे हुए जुआरी की तरह,
पास कुछ नहीं है उसके,जीने के लिए 
दौलत औलाद पर लगा दिया
सम्पत्ति पर कब्जा हो गया अपनों का
उम्र ने शरीर को दीमक की तरह खाकर
काठ का पुतला बना दिया है
नहीं बचा है अब कुछ पास उसके 
जीने का सहारा, निराश्रित आश्रम के अलावा 
काट रहा निराश्रित जीवन वह
कई अपने जैसों  थके हारे बूढ़े-बूढियों के साथ
मौत के इंतजार में निराश्रित आश्रम में
पितृ पर्वत के पास, नहीं बची है कोई आस 
कई सवाल खड़ा करता है
मौत का इंतजार यह ।
क्यों बहू के पत्नी के हाथों अपहृत 
या
विदेश की चकाचौंध में कर रहे युवा 
बूढ़े मां-बाप का परित्याग ।
समस्या गम्भीर सवाल बड़ा है 
मरना तो सब का निश्चित है 
निराश्रित हो या आश्रित
मड़ई में हो कच्चा-पक्का घर,महल 
या निराश्रित आश्रम
मौत तो होगी पर आश्रित को
निराश्रित की मौत,
रिरिक कर,मौत का इंतजार कर कर
ये अत्याचार और नाइंसाफी है 
बुजुर्गो के मान और सम्मान के लिए 
सवाल का जबाब तलाशना होगा ?
संयुक्त परिवार का विकल्प अपनाना होगा 
कर सके अन्तिम यात्रा बूढ़ा आदमी 
सकूं के उड़नखटोले पर अपनो के बीच से सकूं से
ना कि निराश्रित आश्रम में 
मौत का इंतजार कर रहे आदमी की तरह।
नन्दलाल भारती
२०/०१/२०२४

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