मुट्ठी भर आग से सुलगा दी है ,
अरमानों की बस्ती ,
लड़ रहा है आदमी अभिमान के तेग से ,
आग से उठे धुएं में दब रही हैं चीखें ,
हाथ नहीं बढ़ रहा है कमजोर की और,
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा
अमानुष मान लिया गया है
पसीने के साथ धोखा हो रहा है
और हक़ का चीरहरण भी
मुट्ठी भर आग के अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठ में आग भरने वाले ,
तकदीर का लिखा कहते है
मरते सपने धोने वाले छाल कहते है ,
दंश देने वाले तकदीर बनाने वाले बनते है ,
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा आदमी
वंचित हो गया है ,
समानता और आर्थिक समपन्नता से भी।
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग ने बाँट दिया है ,
आदमी को खंड-खंड
मुट्ठी भर आग भरने वाले गुमान कर रहे है
पीड़ित के मरते सपने और
बिखराव को देखकर
मीठी भर आग में सुलग रहे
आदमी को छोटा मान अत्याचार कर रहे है
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग से उपजा धुंआ
चीर कर पीड़ितों की छाती
दुनिया की नाक के आर-पार होने लगा है
आग में जल रहा शीतलता की बाट जो रहा
मुट्ठी भर आग ऐसा गहरा और
बदनुमा दाग छोड़ चुकी है ,
धुलने के सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे है
अत्याचार बढ़ जाता है सर उठते ही
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रही है
मानवता और बढ़ रहा है उत्पीड़न
मुट्ठी भर आग अर्थात जातिवाद से ,
मुट्ठी भर आग से पीड़ा कहीं आक्रोश बने
उससे पहले चल पड़े समानता की राह
क्योंकि आग छीन रही है सकून ,सद्भावना
बाट रही है नफर
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
डॉ नन्द लाल भारती
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