Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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निराश्रित

 
लघुकथा: निराश्रित
हेलो  कैसे हो  मोहन  ?
कन्हैया भैय्या ठीक हूं मोहन भर्राई आवाज में  बोला।
कोई मुश्किल आन पड़ी है क्या कन्हैया पूछा ?
दो बैलों की कहानी तो सुना है ?  
हां जिनसे शेर भी घबराते थे पर लोमड़ी ने शेर की साज़िश में शामिल होकर शिकार करवा दी थी।
यही दास्तान मेरे परिवार में दोहराई जा रही है मोहन दर्द पीने की कोशिश करते हुए बोला।
तुम्हारे परिवार में? विश्वास नहीं हो रहा है  कन्हैया गमगीन होते हुए बोला।
सही सुने हो कन्हैया, मोहन बोला।
तुम दोनों भाई तो राम-लक्ष्मण जैसे हो,बड़ी और छोटी भाभी  सगी बहनों जैसे रह रही थी अब क्या हो गया कन्हैया पूछा ?
वे दोनों तो वैसी है । ठग बाप की बेटी पागल बहू जो नहीं बिगाड़ पायी थी वह सब परिवार की मंझली बहू ने कर दिया पारिवारिक रिश्ते छिन्न-भिन्न हो रहे है। अपने हिस्से के सुख का स्वाहा कर परिवार को तरक्की की राह पर प्रतिस्थापित करने का दण्ड हमें मिल रहा है बोला।
देखो मोहन तुम्हारे त्याग को पूरा गांव जानता है।  तुम्हारे श्रम से तुम्हारे परिवार के सितारे चमके  है, तुम्हारे संयुक्त परिवार के बेटा -बेटी पढ़ लिखकर तरक्की की राह पर दौड़ रहे हैं । कामयाब हो गये तो तुम्हारे त्याग को विसार रहे हैं कन्हैया बोला ।
मुझे इसकी फिक्र नहीं है।  फिक्र इस बात की है  कि जैसे मेरी कनपुरिया बड़ी बहू ने हम दोनों बूढ़े-बूढी को निराश्रित कर परिवार का सुख चैन छिन लिया  है । अब फिक्र है तो भाई की कहीं मेरा भाई न निराश्रित हो जाये मेरी तरह।
नन्दलाल भारती
26/04/2023

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