कविता: सलाम भेज रहा हूं।
जी नौकरी, सख्त जरूरत होती है
नौकरी की,
सपने पूरे करने के लिए
उस वक्त और जरुरी हो जाती है
नौकरी जी नौकरी
कंधे पर जब जिम्मेदारियों का भार,
लदा और लद रहा हो
ऐसे वक्त काम आती है नौकरी
फर्ज पर फना होना मांगती है
नौकरी जी हां फ़ना होना मांगती है
नौकरी।
नौकरी में कई राजा बन जाते हैं
समझ लिये जाते हैं
कई बस मुलाजिम,
जिन्हें ना बोलने का हक होता है
ना अपना दर्द कहने का
मांग रखना,हित की बात रखना
अपराध बन जाता है,
जी हां ऐसा भी होता है
अपनी जहां में
ये वही करते हैं जो
रामराज्य की कल्पना
और
मनुस्मृति का गान करते हैं
हाशिए के आदमी को पनपने नहीं देते हैं
खा लेते है फुनगी बकरी की तरह
सी.आर लहूलुहान कर देते हैं
हाशिए का आदमी बढे तो
मूस मोटई हैं तो लोढ़ा होई है
और कुछ नहीं
सीआर खराब और भविष्य तबाह करने का खेल
फाइलों में निरन्तर चल रहा है
यही खेल हाशिए के आदमी को
दलदल में ढकेल रहा है
मेरे साथ तो यही है
विश्वास नहीं हो रहा है ना
मां जैसे संस्थान में भी
आज भी कंस कर रहे हैं हत्या
भविष्य की कैरिअर की
जिन्दगी के चौराहे पर कभी
ये - एपी,वीपी,डीपी सिंह, रजिन्दर जैन,
द्वारिका जुआल और तो और
घोर जातिवादी निरोध कुमार साहु से
पूछ लेना साहू ने वेरी लेजी आफिसर लिख दिया था
और कंस तो एवरेज के उपर गये नहीं
जो मेरे सपनो को मृत शैय्या पर पटक दिया था
आज भी अमानुषों से मिले घाव से कराह रहा हूं
नौकरी जीवन की उम्मीद थी
अमानुषों ने पतझर बना दिया
कृतज्ञ हूं मां जैसे संस्थान का
आंचल में जिसके बचा रहा
उसी मां को सलाम भेज रहा हूं
भले ही अमानुषों के घाव से कराह रहा हूं
मां तुझे सलाम भेज रहा हूं।
नन्दलाल भारती
२९/०७/२०२३
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