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सिसकियां

 
कहानी: सिसकियां
नन्दलाल भारती 

जाति व्यवस्था एक जहरीला सत्य है।इस व्यवस्था के कुटनीतिज्ञ पहलू इतने नुकीले एवं शक्तिशाली हैं कि हर आदमी खुद को श्रेष्ठ समझता है,भले ही वह पिछड़े वर्ग काअछूत श्रेणी का व्यक्ति ही क्यों न हो। जाति व्यवस्था की कड़वी सच्चाई यह है कि यहां  जाति की श्रेष्ठता पूजनीय है आदमी नहीं। इस व्यवस्था की काली परछाई गांवों में नहीं शहर की चकाचौंध में भी देखी जा सकती है। सरकारी संस्थान ही नहीं औद्योगिक संस्थान भी अछूते नहीं रहे । जहां रोटी के लिए सिसकियां भरते लोग भी जातीयता को प्रमुखता देते हैं। भले तथाकथित छोटी कौम का आदमी दोस्ती अथवा आदमियत के नाम  दिल निकाल कर रख पर तथाकथित उच्च कौम का आदमी मौका मिलते ही डंसने से भी नहीं चूकता। गैर धर्मावलंबी   रईस चपरासी से लेकर उच्च वर्णिका उच्च अधिकारी मि.विजय प्रताप,अवध प्रताप, देवेन्द्र प्रताप,एस.सुरेन्द्र,  राजेन्द्र कुमार, द्वारिकाप्रसाद, निरोध माहू एवं अन्य  प्रसन्न बाबू  के कैरिअर एवं चरित्र को तबाह करने में तनिक भी कोताही नहीं बर रहे थे । पच्चीस साल की नौकरी में  प्रसन्न बाबू को प्रमोशन ऊंट के मुंह में जीरा जैसा मिला। जातिवाद के जंगल में प्रसन्न बाबू का दम घूंट रहा था। न तो प्रमोशन मिल रहा था न स्थानान्तरण। 

धार्मिक शासक भले ही न स्वीकार करें परन्तु सच्चाई यही है कि जातिवाद की पाताल तक पहुंची जड़ें  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आज भी सिसकियां दे रही है। पच्चीस साल की नौकरी में प्रमोशन को तरसते प्रसन्न बाबू का आखिर स्थानांतरण हो गया। प्रसन्न बाबू ने नौकरी ज्वाइन भी कर लिया । नये स्थान पर उनकी दोस्ती तथाकथित उच्चवर्णिक प्रपंचभाई कलंकी से हो गई।
जनवरी का महीना था, दांत किटकिटाने वाली सर्दी तो नहीं थी पर ठण्डी का असर वातावरण में था। प्रसन्न बाबू  कार्यभार सम्भाल लिए थे। प्रशासन विभाग प्रमुख मि.सुनील साहब भले आदमी और बेहतरीन अफसर थे। प्रसन्न बाबू को भरपूर मान -सम्मा़न मिल रहा था,जो पच्चीस साल की नौकरी में नहीं मिला। नतीजतन प्रसन्न बाबू अपने फैसले पर बहुत खुश थे। नौकरी के कुछ साल ही बाकी थे। पत्नी गायत्री की अस्वस्थता के कारण परिवार मालवांचल  में रहा था और प्रसन्न बाबू विभाग के क्वार्टर में।
जनवरी से मार्च तक का समय प्रसन्न बाबू के नौकरी जीवन का बेहतरीन समय साबित हुआ। मार्च के आखिरी दिन मि.सुनील साहब रिटायर हो गए। अप्रैल से प्रशासन विभाग की कमान मि.निरोध माहू के हाथ में आ गई।
मि.माहू के हाथ में विभाग की डोर क्या आई वे प्रसन्न बाबू के लिए कंस साबित होने लगे और पूर्व के अफसरों मि.विजय प्रताप,अवध प्रताप, देवेन्द्र प्रताप,एस.सुरेन्द्र,  राजेन्द्र कुमार, द्वारिका प्रसाद, काम प्रवेश  एवं अन्य जैसा जातिवादी व्यवहार चरम स्तर पर करने लगे। मरणासन्न पिता से मिलने तक की छुट्टी पर प्रतिबंध लगाने लगे। खुद जमींदार और प्रसन्न बाबू को बंधुआ मजदूर समझने लगे ‌। वक्त बेवक्त अपने दफ्तर में बुलाकर लोगों के सामने डांटना, धमकाना, ठीक से काम नहीं करने के मनगढ़ंत मुद्दे बनाकर अपयश लगा कर अपमानित करना मि.माहू की रोज की आदत बन गई थी। प्रशासन विभाग प्रमुख जातीय तेली मि.निरोध माहू को दलित प्रसन्न बाबू की उपस्थिति खटक रही थी। मि.माहू इतना घटिया व्यवहार करते थे कि  कई बार तो प्रसन्न बाबू को आत्महत्या तक के विचार आ जाते थे पर परमात्मा ने सद्बुद्धि दे दी जिससे प्रसन्न बाबू की जान बच गई।
मि.माहू पूर्व  जातिवादी अफसरों से आगे निकल गए और बहुत बुरी तरह से सीआर खराब कर दिये। एक दिन दफ्तर आते ही प्रसन्न बाबू को  तलब कर लिए और बातों की तलवार भांजने लगे,आज दफ्तर में कोई तीसरा न था। प्रसन्न बाबू  बोले-इस तरह के व्यवहार से मैं कैसे काम कर सकता हूं। इतना ही कहना था कि मि.माहू के तन में आग लग गई। अभिमान पर चोट लग गई मि.माहू बुरी तरह अपमानित कर दफ्तर से भगा दिए। एक जातिवादी महाप्रबंधक का यह दुराचरण निन्दनीय था, पूरी फ्लोर पर सन्नाटा था सभी के कान मि.माहू के    काठ के दफ्तर की दीवार पर टिकी हुई थी। प्रसन्न बाबू मौन सिसकियां भरते हुए जातिवादी हिटलर मि.माहू के दफ्तर से निकले। मि.माहू ने बैडबिहैविअर का अपयश  प्रसन्न बाबू के माथे मढ़कर उच्च प्रबंधन तक को ईमेल कर दिया था।
दूरगामी भयाक्रांत की पूरी उम्मीद थी, उम्मीद के मुताबिक बतौर  हिटलर यानि मि.माहू ने प्रशासनिक भवन से संयंत्र के प्रशिक्षण विभाग में स्थानांतरण कर दिया।
प्रशिक्षण विभाग के प्रमुख से प्रसन्न बाबू की शिकायत भी कर दिए। मि.अवतार, प्रशिक्षण प्रमुख कहा पीछे रहने वाले थे। प्रसन्न बाबू की ज्वाइनिंग को अस्वीकार कर रहे थे। प्रसन्न बाबू प्रशिक्षण विभाग से प्रशासनिक विभाग के बीच दिन भर लटके।यह सब मि.अवतार मि.माहू को खुश करने के लिए कर रहे थे। काफी दिनों तक प्रसन्न के साथ सख्त रवैया अपनाये पर जब उन्हें असलियत का पता चला तो उनका रवैया सकारात्मक हो गया था। प्रशिक्षण विभाग सिर्फ तीन अधिकारी थे प्रसन्न बाबू चौथे हो गये थे। इसी बीच प्रपंचभाई कलंकी, लाइब्रेरियन थे , प्रसन्नबाबू को पढ़ने का शौक था इसीलिए उनसे तनिक प्रगाढ़ता हो गई थी। सरल सहज प्रवृत्ति के प्रसन्न बाबू ने असली दोस्त मान लिया जबकि प्रपंच भाई मि.निरोध माहू के खुफिया जासूस थे। मि.प्रपंच खुश थे कि उनका दोस्त मि.माहू प्रशासनिक जनरल मैनेजर है जबकि मि.माहू के लिए वह सिर्फ कर्मचारियों की बातचीत को गुप्त रुप से पहुंचाने का एक  जरिया मात्र था। स्थानांतरण के बाद भी मि.माहू प्रसन्नबाबू को फोन पर धमकाते रहते जब जातिवादी नरपिशाच का मन नहीं भरता तब वह फोन कर प्रसन्न बाबू को अपने दफ्तर में तलब करते और विभाग के लोगों को भी अपने दफ्तर में बुलाते फिर सभी के सामने अपनी काली जबान पर जमी बिल्ली के गुह की परत अच्छी तरह साफ करते, जिससे उनके चम्मचों को बड़ा मज़ा आता था। 
मि.माहू की पदोन्नति हो गई और अब मि.चीफ जनरल
मैनेजर बन गये।अब क्या बन्दर के हाथ में उस्तरा आ गया। ट्रेनिंग विभाग भी उनके अधीनस्थ हो गया,कई बार तो ट्रेनिंग विभाग के प्रमुख अवतार जी को भी हिटलर मि.माहू ने  अपमानित कर दिया इतना ही नहीं अपने दफ्तर से भी बाहर कर दिए थे। चीफ जनरल मैनेजर होने के बाद तो मि.माहू जैसे आग में मूतने लगे थे।

मि.हिटलर अर्थात निरोध माहू की सभा लगातार सजती रही और इस सभा में हाजिर होने के लिए खुद मि.हिटलर प्रसन्न बाबू को फोन कर बुलाते । हिटलर की सभा में प्रसन्न बाबू को अनमने मन से हाजिर भी होना पड़ता। मि.माहू वैसे तो प्रसन्न बाबू का अपमान ही करते पर उनके चम्मचे सांकेतिक रुप से तालियां और ठुमके तक लगाने से नहीं चुकते थे। हां इस सभा में एकाध मानवतावादी भी होते थे निरापद प्रसन्न बाबू के उपर हो रहे अत्याचार को देखकर उनकी सिसकारियां भी निकल जाती,दबी जुबान कहते भी कैसा अमानुष है निरोध माहू पर किसी में विरोध की आवाज उठाने का सामर्थ नहीं था। हां एक दो लोगों ने मि.माहू के अत्याचार से घबराकर   कभी  इस्तीफा भी दियि था पर वापस भी ले लिया था। मि.माहू के हौसले बुलन्द थे। उच्चतम प्रबंधन भी मौन था। मि.निरोध माहू की सभा निर्विवाद रूप से बैठती रही और प्रसन्न बाबू पर अत्याचार जारी था। प्रसन्न बाबू ने भी स्थानांतरण के लिए उच्च प्रबंधन से अनुरोध किया पर मि.हिटलर ने होने नहीं दिया।
प्रसन्न बाबू भले विभाग में मामूली से अफसर थे जिनको मि.हिटलर ने अछूत मानकर हाशिए पर रखा हुआ था पर काम से कोई परहेज़ न था। प्रसन्न बाबू ऊंची सोच वाले व्यक्ति थे अपने साथ शुरुआत से ही हो रहे शोषण, अत्याचार को शोधकार्य की तरह ले रहे थे और जातिवादियों के ज़ुल्म को किस्से कहानियों के रुप में कलमबद्ध कर रहे थे।
हिटलर का जुल्म जारी था और प्रसन्नबाबू का शोधकार्य भी। इसी दरम्यान समय ने ऐसा करवट बदला कि दुनिया में हाहाकार मच गई। कोरोना रुपी सुरसा के प्रकोप से दनादन लाशें गिर रही थीं। इस दौरान भी मि.निरोध माहू का मन शांत नहीं हुआ। शैतान प्रपंच कलंकी को विश्वास में लेकर हिटलर एक नई चाल चल दिया। इस चाल से मि.कलंकी के दोनों हाथ में जैसे लड्डू आ गये।
हुआ यूं कि मि.माहू के रिटायर का महीना था आगामी मई  और मि.प्रपंच का भी। इन तथाकथित कुटिल दोस्तों ने एक चाल दिया। कहते हैं ना संईया भरे कोतवाल तो डर काहे का। मि.माहू को भरोसा था कि वे संस्थान से रिटायर्ड न होंगे उनके बिना संस्था  चल ही नहीं सकती। दोस्ती का फायदा उठाकर प्रपंच ने पासा फेका या मि.माहू ने हड्डी का टुकड़ा। खैर नुकसान तो प्रसन्नबाबू का था,इस खेल में प्रसन्नबाबू की जान भी जा सकती थी जबकि प्रपंच कलंकी प्रसन्नबाबू को कहने को तो छोटा भाई कहते थे,कई बार प्रसन्नबाबू के घर रोटियां भी तोड़ते थे। इसके बाद भी खुद के फायदे के लिए छाती में खंजर उतारने की चाल। 
हाय ये बड़ा भाई लानत है ऐसे मुखौटे पर।
मि.प्रपंच कलंकी स्नातक  सीनियर लाइब्रेरियन थे और प्रसन्न बाबू, उच्च डिग्रीधारी जूनियर आफिसर, प्रशिक्षण थे । मि.कलंकी तथाकथित मि.माहू से नजदीकी का इसका फायदा उठाकर  अवैध रूप से आधे दिन के लिए संस्थान के राजस्व विभाग में ज्वाइन करने का दबाव डालने लगे ताकि उनकी नौकरी का एक्सटेंशन हो सके। इसमें बड़ा खतरा था प्रसन्न बाबू को था। पहली बात तो इसका प्रसन्न बाबू को कोई अनुभव न था।दूसरा जानलेवा खतरा था कोरोना का। पब्लिक डिलिंग थी, क्वार्टर, गैस,पानी, बिजली यानि हर मूलभूत जरूरतों के लिए लोगों का आना जाना था। कोरोना विनाशकारी स्थिति में था,मि.माहू के इशारे पर मि.प्रपंच कलंकी सीनियर होने की वजह से बिना किसी लिखित आदेश के राजस्व विभाग में प्रसन्न बाबू आधा दिन सेवाएं देने पर खुद भी और उपर से भी दबाव बनवा रहे थे परन्तु प्रसन्न बाबू टस से मस नहीं हो रहे थे उन्हें खतरे का अंदाजा था या तो कोरोना की लहर में चले जायेंगे या लहर से बच गए तो मि.माहू किसी गमन के मामले में अन्दर करवा देंगे। इस तरह से मि.प्रपंच कलंकी की नौकरी का साल दर साल एक्सटेंशन होता रहेगा।

मि.माहू के इशारे पर मि.कलंकी प्रसन्नबाबू पर दबाव बना रहे थे कि कोरोना लहर में वे आधा दिन के लिए इस्टेट आफिस स्वेच्छा से ज्वाइन कर ले पर प्रसन्न बाबू को यह स्वीकार न था। अन्दर ही अन्दर मि.कलंकी नाराज थे पर उनके लिए उनका स्वार्थ सर्वोपरि था प्रसन्न बाबू की जान ही क्यों न चली जाए उनको कोई फर्क पड़ने वाला था। अब मि.कलंकी आश्वस्त हो गये थे कि प्रसन्नबाबू मि.कलंकी की सलाह पर खुद की जान खतरे में नहीं डालेंगे। ऐसा प्रयास मि.कलंकी पहले भी कर चुके थे। कोरोना काल के पहले आधा दिन के लिए फैक्टरी की कैन्टीन में प्रसन्न बाबू का स्थानांतरण करवाने पर तूले हुए थे जबकि मि.माहू कैंटीन के सर्वेसर्वा थे।वह कभी भी जातीय दुश्मनी की वजह से मि.निरोध माहू प्रसन्न बाबू को किसी घोटाले में फंसा सकते थे पर प्रसन्न बाबू ने मि.कलंकी का यह भी प्रस्ताव ठुकरा दिया था।मि.कलंकी कहने को तो भले ही छोटा भाई कहते थे पर  बगल में छुरी रखें हुए थे।
इस्टेट आफिस के आधा दिन का प्रसन्न बाबू का स्थानांतरण मि.कलंकी के एक्सटेंशन का प्रपंच था,मि.कलंकी अपने स्तर पर सी.जी.एम.मि.माहू से सांठगांठ कर अपनी कमाई के लिए प्रसन्न बाबू की अर्थी निकलवाने पर जुड़े हुए थे।मि. कलंकी के लिए जैसे समय तीव्र गति से भागने लगा,मि.कलंकी और मि.माहू के रिटायरमेंट में कुछ ही महीने शेष थे और दोनों बौखलाए हुए थे।मि.माहू अपने एक्सटेंशन को लेकर सुनिश्चित थे और मि.कल़ंकी के एक्सटेंशन लिए दण्ड और भेद नीति अपना रहे थे ताकि प्रसन्न बाबू दुनिया से उठ जाये और गलती मरने वाले प्रसन्न की साबित की जा सके।
इसी सिलसिले में    एक दिन ट्रेनिंग के प्रमुख मि.अवतारजी को मि.निरोध माहू ने तलब किया और प्रसन्नबाबू की  आधा दिन की इस्टेट आफिस में पोस्टिंग करने पर दबाव बनाया। मि.अवतार जी मि.माहू के आफिस से आते ही प्रसन्न बाबू को बुलाये ।
प्रसन्नबाबू -दरवाजा नाक किए।
आ जाओ प्रसन्न,और बैठने का इशारा करते हुए अवतार साहब बोले -मि.माहू के आफिस से आ रहा हूं। मि.माहू चाहते हैं कि तुम जल्दी हाफडे के लिए इस्टेट आफिस सम्भालो और दूसरे हाफ में में   ट्रेनिंग सेंटर।
कोई लिखित आदेश दिया है मि.निरोध माहू ने प्रसन्न बाबू पूछे।
नहीं -अवतार साहब बोले।
आप बताइए मैं अपनी  जान क्यों जोखिम में डालूं।पोर्ट से आने जाने वाले हैवी ट्रैफिक को देख रहे हैं।उधर कोरोना का संकट, अपने ही विभाग में लोग वर्क फ्राम होम कर रहे हैं। मि.निरोध माहू मुझे मौत के मुंह में ढकेल रहे हैं।उधर से मि.माहू की धौंस,इधर मि.कलंकी का दबाव, क्या माजरा है ।कुछ भी हो बिना लिखित आदेश लिये मैं इस्टेट आफिस नहीं ज्वाइन करूंगा। मुझे लगता है, अपरोक्ष रूप से मेरी हत्या की साज़िश चल रही है तभी तो मि.माहू प्रपंच कलंकी की नोकरी के एक्सटेंशन के लिए इतना कुछ कर रहे है प्रसन्नबाबू बोले।
तुम्हारा तथाकथित बड़े भाई कलंकी की चाल है। भले ही तुम बड़ा भाई मानो और वह तुम्हें छोटा, भले ही तुम उसे रोज दावत पर बुलाओ पर वह तुम्हारी पीठ में खंजर उतारता रहता, तुम्हारी शिकायत पहले भी करता रहता । आज भी माहु से सांठगांठ कर रहा है। मैं जानता हूं तुमने पूरे विभाग का काम सम्भाल रखा है। कलंकी तुम्हारी हर एक्टिविटी की शिकायत करता है बहरहाल तुम अच्छा काम करते हो इसलिए टिके हो अवतार जी बोले।
साहब काम करने के लिए तो नौकरी कर रहा हूं,इसी से मेरा परिवार आगे बढ़ रहा है। नौकरी की वजह से सामाजिक मर्यादा है,भला मैं विभाग के साथ विश्वासघात कैसे कर सकता हूं प्रसन्न बोला।
तुम्हारी ये सोच है ।कलंकी साल भर पहले तुम्हारे सामने ही मुझसे कह दिया था कि मैं अब विभाग का कोई काम नहीं करूंगा,सारा काम तुम्हारे उपर आ गया। इतनी ताकत कहां से आती ? यक़ीनन यह सब मि.निरोध माहू के दम किया है। उपर से तुम्हारी शिकायत कर रहा है और मि.माहू तुम्हारे उपर अत्याचार का शिकंजा कसता जा रहा है। अब महीने भर बाद मैं भी रिटायर्ड हो जाऊंगा,तुम अपना ध्यान रखना ये स्वार्थी बड़े जालिम है अवतार जी बोले।
मेरी नौकरी साल भर की और है।मि.कलंकी की दो और मि.माहू के भी दो।अगर हिटलर अपनी जिद पर अड़ा रहा तो इस्तीफा दे दूंगा पर बिना लिखित आदेश के इस्टेट आफिस गुमनाम मरने तो नहीं जाऊंगा प्रसन्न बोला।
अब कलंकी या मि.निरोध माहू मुझसे तुम्हें हाफ डे इस्टेट आफिस भेजने को बोलेंगे तो मैं कह दूंगा आप प्रसन्न को लिखित आदेश दो तभी वह जायेगा अवतारजी बोले। 
महीना भर बाद मि.अवतारजी रिटायर्ड हो गये पर जातिवादी दुश्मन माहू शान्त नहीं बैठ रहा था। कहते हैं ना भगवान के घर देर है अंधेरा नहीं उसके किये घोटाले पहले ही उजागर हो गयी थी जिसकी  विभागीय जांच भी शुरू हो गई थी पर माहू जातिवादी नरपिशाच प्रसन्न को बर्बाद करने पर तूला हुआ था। जातीय कारणों से मि.निरोध माहू ने प्रसन्न बाबू की सीआर इतनी खराब कर दी थी और ओवर आल कमेंट में वेरी लेजी आफिसर भी लिख दिया था    ताकि कभी प्रमोशन नहीं हो। इतना कुछ करने के बाद कोरोना के हवाले करना चाह रहा था।
इधर मि.माहू के इशारे पर अपने एक्सटेंशन का आवेदन तैयार करने में प्रपंच कलंकी जुट गए थे शायद ऐसा आवेदन मि.माहू के माध्यम से उच्चतम प्रबंधन को भेज दिया । शायद  प्रपंच कलंकी के आवेदन को देखकर प्रबंधन को ऐसा लगा था कि मि.कलंकी के बिना विभाग बंद हो जायेगा। मि.कलंकी का एक्सटेंशन ठण्डे बस्ते में चला गया। मि.निरोध माहू का अन्त तो और भी बुरा हुआ घोटाले के बोझ से उसकी कमर तो टूट तो गयी थी पर उसकी ऐंठन जली हुई रस्सी की तरह ही बनी रही। कहते हैं ना रस्सी जल गई ऐंठन नहीं गया, ठीक यही हाल था मि.माहू का।
वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते मि.माहू का  से सम्मान करता पर जातिवादी मि.माहू प्रसन्न को नीचा दिखाने का ही प्रयास करते और उनका बात व्यवहार  भी घटिया ही होता था। प्रसन्नबाबू मि.माहू से कम पढ़े लिखे नहीं थे, शायद ज्यादा ही थे,इस वजह से भी मि.निरोध माहू प्रसन्नबाबू से चिढ़ते थे। मि.माहू की निगाहों में प्रसन्न बाबू वैसे ही थे जैसे एक तो करैला दूसरे नीम चढ़ा। छोटी कौम के प्रसन्न बाबू मि.माहू से पढ़े -लिखे अधिक थे पर मामूली दर्जे के अधिकारी थे और उच्चवर्णिक    मि.निरोध माहू उच्चतम श्रेणी की अधिकारी थे पर आदमियों की तराजू पर अमानुष थे। प्रसन्न बाबू ऐसे उच्चतम अधिकारी के अधीनस्थ काम कर रहे थे जो किसी सजा से कम न था पर नौकरी करनी,रोजी-रोटी का सवाल तो था ही पर आंसूओं के पार प्रसन्न बाबू को खुशहाल जहां भी दिखायी  पड़ रहा था। जिस जहां में उनकी औलादें तरक्की करती नजर आ रही थी।
प्रसन्न बाबू विभाग के प्रति वफादार थे अपनी ड्यूटी के प्रति ईमानदार भी। मि.माहू के रिटायरमेंट में बस महीने भर बाकी था जातीय दुश्मनी की दीवार और खड़ी हो रही थे। नौकरी के एक्सटेंशन को लेकर अब प्रसन्न बाबू को छोटा भाई कहने वाले प्रपंच कलंकी की भी साजिशें जारी थी परंतु प्रसन्न बाबू इन साजिशों के बाद भी  कोरोनावायरस आतंक के बीच मि.निरोध माहू के मौखिक आदेश को नजरंदाज करते हुए इस्टेट आफिस ज्वाइन नहीं किया। प्रसन्न बाबू की जान भी बच गई और कैण्टीन घोटाले के भूचाल से मर्यादा भी । कहते हैं नेक आदमी के संकल्प को पूरा करने में कायनात जुट जाती है। प्रसन्न बाबू अमानुष निरोध माहू और धोखेबाज प्रपंच कलंकी की तैयार तेजाब की दरिया को पार कर गये। मई की तपिश में दोनों जातिवादी,श्रेत्रवादी अमानुष मि.निरोध माहू और रिश्ते की छाती में खंजर उतारने वाले प्रपंच कलंकी छोटी कौम का जानकर जीवन में सिसकियां भरने वाले खुद सिसकियां भरते हुए  विदा हो गए।इन अमानुषो के विदा होते ही उनके काले कारनामों पर फब्तियां कसने वालों की बाढ़ आ गई।  प्रसन्न बाबू के मान-सम्मान में अभिवृद्धि होने लगी।वफ़ा के सिपाही प्रसन्न बाबू प्रसन्नचित मन से कहते!
अमानुषों याद रखा करो
आदमी को आदमी समझा करो
 कर्म का सम्मान किया करो
क्या जाति क्या धर्म,
आदमियत पर मरा करो
निकल जायेगा गुमनाम जनाजा
एक दिन
यह भी ख्याल में रखा करो
गर आदमी हो 
कर्म के फर्ज पर फनाह हो जाया करो
सम्मान से खुद जीओ और 
दूसरों को जीने दिया करो ।

नन्दलाल भारती
 01/12/2022
समाप्त 











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